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Sunday 26 June 2011

विक्रम-बेताल : आचार्य वनस्पती सिंह और काशी की गुरु-शिष्य परंपरा

अपनी आदत से मज़बूर राजा विक्रम, बेताल को लेने श्मशान पहुँच गया लेकिन बेताल उसे दिखा नहीं...उस समय बेताल कुछ चुड़ैलों के साथ आइस-पाइस खेल रहा था.

विक्रम ने इधर-उधर देखकर आवाज़ लगाई.बेताल हाँफता हुआ आया और विक्रम की गर्दन से झूल गया.


विक्रम, बेताल को लेकर चल पड़ा.बेताल ने कहानी शुरू की-----------

सुन राजन ! आज तुझे आचार्य वनस्पती सिंह और उनके शिष्य हरित क्रांति की कथा सुनाता हूँ......पादप विज्ञान के आचार्य, वनस्पती सिंह काशी के रहने वाले थे. संभवतः उनके माता-पिता ने उनका नाम वंशपति सिंह रखा होगा, लेकिन काशी की परंपरा में वो वनस्पती सिंह हो गया होगा और वही रह गया. काशी में ही शिक्षा-दीक्षा लेने के उपरांत वे अपनी प्रथम नियुक्ति में, रेवाखण्ड के विश्वविद्यालय में पादप विज्ञान के आचार्य बनकर आये. साथ में उनकी भार्या पुष्पलता और दो बच्चे-अश्वगंध और घृतकुमारी भी आये.
विवि मे पादप विज्ञान का विभाग नया था, वनस्पती सिंह इकलौते आचार्य थे. अतः आते ही स्वाभाविक रूप से विभागाध्यक्ष का पद सुशोभित करने लगे.
विभाग का दायित्व सम्भालते ही उन्हे एक विलक्षण प्रतिभा वाला शिष्य मिल गया. उसका नाम था- हरित क्रांति. उसके कवि-शिक्षक पिता ने अपनी कल्पना के सर्वोच्च शिखर पर जाकर यह नाम रखा था. पाँच भाई-बहनों में यह सबसे छोटा, किन्तु पिता के सपनों में सबसे बड़ा सपना था.
आचार्य जी ने दो-चार दिन में ही उसकी प्रतिभा को पहचान लिया था. विभाग के अलावा उसे अपने घर में भी दीक्षा देने लगे. न केवल आचार्य जी ही उसे दीक्षित कर रहे थे,बल्कि गुरु माता भी उसे आटा गूंथने,सब्जी काटने,वस्त्रादि पछारने जैसे गृहकार्यों मे प्रवीण कर रही थीं.----आचार्य जी इसे काशी की गुरु-शिष्य परंपरा कहते थे जिसका इस रेवाखण्ड में नितान्त अभाव था.
राजन ! सायंकालीन बेला में जब आचार्य जी मदिरापान के लिए अवस्थित होते तो शिष्य हरितक्रांति शीतल जल और लवण इत्यादि की व्यवस्था किया करता. यही वह समय होता था जब आचार्य वनस्पती सिंह, शिष्य हरितक्रांति को अपनी मौलिक उद्भावनाओं से शिक्षित करते थे....उनकी मौलिक खोज के मुताबिक , पेड़-पौधे भी संसर्ग किया करते हैं. पेड़-पौधे उभयलिंगी होते हैं. वर्ष में दो बार,एक निशचित समय पर उनकी दो शाखाएँ ( जिनमें विपरीत लिंग होते हैं ) आपस में कुछ दिनों के लिए जुड़ जाती हैं.यही उनका रति-काल होता है.

शिष्य हरितक्रांति इसी तरह के अनेक दिव्य उद्घाटनों से अचम्भित,स्तम्भित और गदगद हो उठता. साथ में उसकी अपनी प्रखर मेधा तो ही. सो वह पादप-विज्ञान विभाग में इतना लोकप्रिय हुआ कि कक्षा की एकमात्र कोमल-कांत-पदावली उस पर मोहित हो उठी.
आचार्य वनस्पती सिंह को यह ताड़ने में तनिक भी देर न लगी, क्योंकि वह तरुणी खुद उनके भी संचारी भावों का आलंबन थी.

एक दिन मदिरा की चतुर्थ आवृत्ति के बाद आचार्य जी ने शिष्य से कहा--" बालक, हमारी काशी में एक परंपरा यह भी है कि यदि शिष्य को कोई दुर्लभ फल प्राप्त हो जाये, तो वह उसे सर्वप्रथम अपने गुरु को अर्पित कर उनसे जूठा करवाता है. तभी उस फल का सम्पूर्ण लाभ उसे मिलता है."
हरितक्रांति मर्मान्तक पीड़ा के साथ कराहा---" गुरुवर आप कैसी बात कर रहे हैं, वह मेरी प्रीति है. हम दोनो ने विवाह करने का प्रण किया है."

इस गटना के बाद हरितक्रांति आचार्य जी से कटा-सा रहने लगा.उनके घर जाना तो बिल्कुल ही बंद हो गया. कुछ महीनों बाद उसकी स्नातकोत्तर की पढ़ाई भी पूरी हो गई.M.Sc. और ढाई आखर-दोनो ही पाठ्यक्रमो में वह विशेष योग्यता के साथ उत्तीर्ण हो गया. पिताजी का सपना उसे कॅालेज में प्राध्यापक बनाने का था,जिसके लिए Ph.d. की उपाधि आवश्यक थी. इसके लिए उसे फिर आचार्य जी की शरण में जाना था....वह गया...आचार्य जी ने क्षमा की मुद्रा में उसका स्वागत करते हुए शोध-निदेशक बनना स्वीकार कर लिया.

जिस दिन उसके शोध कार्य को अनुमति देने की बैठक विवि में होनी थी, गुरुमाता ने हरितक्रांति से अपनी एक इच्छा व्यक्त की. उन्हें लेब्राडोर नस्ल के पिल्लों का एक जोड़ा पालना था. हरितक्रांति उस दिन उत्साह में था. उसने पिल्लों का जोड़ा देने का वचन गुरुमाता को दे दिया. इस वचन के साथ ही उसके शोध कार्य का शुभारंभ निर्विघ्न हो गया.पिल्लों का जोड़ा 45 हज़ार रु. में मिला. शिक्षक-पिता ने, प्राध्यापक-सपने के लिए ये पैसे दिये.

राजन ! पिल्लों के साथ-साथ हरितक्रांति का शोधकार्य भी बढ़ता गया. तीन साल की अथक मेहनत के बाद आखिर वह घड़ी आ गई जब शोध-ग्रंथ पर आचार्य जी को हस्ताक्षर करना था....हरितक्रांति इस अवसर के लिए चांदी की कलम लेकर आया था आचार्य जी के लिए.....आचार्य जी मुसकाए...शोध-ग्रंथ को एक किनारे रखते हुए कहा----" तुम्हारी प्रेमिका कैसी है ? तुम्हें काशी की परंपरा याद है न ?? "

उसके बाद की कथा यह है कि हरितक्रांति का शोध-ग्रंथ तीन बार रिजेक्ट हुआ....और दो वर्ष बाद हरितक्रांति का शव नवनिर्मित वाणसागर बांध की एक नहर में पाया गया.

कहानी खत्म कर बेताल ने प्रश्न किया----" अब तू बता राजन, हरितक्रांति की मृत्यु का कारण क्या था--काशी की परंपरा या शिक्षक-पिता का प्राध्यापक-सपना ??? "

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