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Saturday 22 October 2011

हिन्दी आलोचना के ब्रह्मचारी : डॉ. रामविलास शर्मा


  10 अक्टूबर से सुप्रसिद्ध आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा का जन्म-शताब्दी वर्ष शुरू हो गया है. वैसे भी यह वर्ष हिन्दी क्षेत्र के लिए एक असाधारण वर्ष इस मायने में भी है कि यह वर्ष कई बड़े साहित्यकारों का जन्म-शताब्दी वर्ष है. अज्ञेय,नागार्जुन,केदार से लेकर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का भी यह जन्म-शताब्दी वर्ष है. इन सब लेखकों के बीच रामविलास शर्मा इसलिए भी अलग और इकलौते हैं कि वे विशुद्ध आलोचक थे.
        कुछ मित्रों की मंशा थी कि शताब्दी वर्ष में रामविलास जी पर बातचीत का एक सिलसिला शुरू हो. मित्रों की .ह इच्छा इसलिए भी सम्मानीय है कि हमारे हिन्दी क्षेत्र में विस्मृति की समस्या कुछ ज़्यादा ही बढ़ गयी है. मैं पुरउम्मीद हूँ कि हिन्दी समाज के समर्थ समीक्षक रामविलास जी पर गंभीर और उपयोगी चर्चा करेंगे. उन पर कुछ की हिम्मत करना मेरे लिए आसान नहीं था. अपनी सामर्थ्य को लेकर मेरे भीतर कोई मुगालता भी नहीं है. फिर भी मुझे लगा कि वो हमारे लेखक हैं और अपनी अल्पज्ञता के साथ भी उन पर बात करने का मेरा प्राकृतिक अधिकार है. इसी अधिकार-बोध के तहत मैं रामविलास जी पर कुछ कहने की कोशिश कर रहा हूँ, इस निवेदन के साथ कि ये बातें, रामविलास जी पर विमर्श की सिर्फ प्रवेशिकाएँ ही हैं.
         नयी शताब्दी ने शुरुआत में ही भारतीय साहित्य के तीन सर्वाधिक कर्मठ और ईमानदार लेखकों को हमसे छीनलिया था. रामविलास शर्मा, केदारनाथ अग्रवाल, और अली सरदार जाफरी, भारतीय साहित्य में मार्क्सवादी और प्रगतिशील सोच के निर्माण के प्रमुख अभियंता थे.इनकी प्रतिबद्धता निर्विवाद थी. एक के बाद एक, इनका जाना, प्रगतिशील आंदेलन से जुड़े साहित्यकारों के लिए तो एक आघात जैसा था ही, साथ ही भारतीय संस्कृति-साहित्य पर गर्व करने वाला हर मानस दुखी और चिन्तित हुआ था. इस दौर में जब प्रतिबद्धताएँ अत्यंत लचीली हो चुकी हैं, इन प्रतीक-पुरुषों का अवसान उन लोगों को भी बेचैन करता है, जो अक्सर इनके तवे पर अपनी साहित्यिक रोटियां सेंक कर किसी तरह साहित्यिक-जीवन-यापन कर रहे थे. दरअसल, मार्क्सवाद के प्रति इनकी एकनिष्ठता, लगन और विपुल सृजन ने परवर्ती मार्क्सवादी लेखकों को इतनी आसानी तो दी थी कि ये किसी तरह बाज़ारवादी व्यवस्था से अपना सामंजस्य बैठा लें. रामविलास जी प्रगतिशील आंदोलन के इतने मजबूत और अडिग स्तम्भ थे कि परवर्तियों को निश्चिन्त  होने का मौका मिल जाता था.
         अब यह कहने की ज़रूरत नहीं कि डॉ.रामविलास शर्मा हिन्दी में मार्क्सवादी आलोचना दृष्टि के शीर्ष पुरुष थे. यद्यपि अपने शुरुआती साहित्यिक जीवन में उन्होंने एक उपन्यास और कुछ कविताएँ भी लिखीं लेकिन उसके बाद उनका पूरा जीवन एक समालोचक की क्रमशः विकास यात्रा था. अपने इस सुदीर्घ जीवन में उन्होंने साहित्यिक कृतियों की आलोचना के साथ-साथ भारतीय समाज,दर्शन,राजनीति पर भी चिन्तन किया और भारतीय वास्तुकला,पुरातत्व,संगीत और खासतौर पर प्राचीन संगीत के आंतरिक संबन्धों की खोज का अद्वितीय कार्य किया. रामविलास जी ने प्राचीन भारतीय भाषाओं के सामाजिक विकास में भूमिका की पड़ताल करते हुए, भाषा-विज्ञान पर मौलिक काम किया है. निराला पर उनके लेखन को तो मानक माना जाता है. सिर्फ निराला ही नहीं, रामचन्द्र शुक्ल, प्रेमचन्द, कालिदास, भवभूति, तुलसीदास, महावीर प्रसाद द्विवेदी पर उनके लेखन को अगर निकाल दिया जाय तो देखिए कि इन रचनाकारों पर क्या बचता है..! भले ही ये स्थापनाएँ विवादास्पद रही हो लेकिन हिन्दी क्षेत्र में उपरोक्त लेखकों की वही छवियां आज भी मान्य हैं जो रामविलास शर्मा ने बनायीं. ऐसा भी नहीं था कि उनकी सारी छवियां स्वीकृत ही कर ली गयीं हों. सुमित्रानन्दन पंत, राहुल सांकृत्यायन, हजारी प्रसाद द्विवेदी, यशपाल और मुक्तिबोध पर उनकी स्थापनाओं को आज तक नहीं स्वीकृत किया जा सका है. जितना अधिक और बहुआयामी लेखन रामविलास जी ने किया है, उसकी कल्पना हिन्दी में करना कठिन था. उनके जैसे दृढ़ निश्चयी और साधक आलोचक कम ही होते हैं.
         भारतीय समाज-दर्शन-साहित्य पर जितना गंभीर लेखन रामविलास जी कर गये,सका मूल्यांकन अभी हुआ नहीं है. आलोचना को लेकर उनकी दृष्टि एकदम अलग दिखती है. वे आलोचना को “ अनेक साहित्यिक कृतियों के अन्तर्सम्बन्धों को पहचानने की प्रकृया “  मानते थे. इसके साथ ही वे ईमानदारी से यह भी स्वीकार करते थे कि “ मुझे स्वान्तः सुखाय आलोचना “ में आनन्द आता है. रामविलास जी ने भले ही स्वान्तः सुखाय आलोचना लिखी हो, लेकिन इस बहाने भारतीय दर्शन, संस्कृति, भाषा और जातीय विकास के वे मर्म पाठकों के लिए खुलते हैं जिनके बारे में हमारी मनीषा में बहुत दयनीय जानकारी उपलब्ध थी. इसमें भी संदेह नहीं कि जैसे-जैसे इनके लेखन का मूल्यांकन होता जायेगा, हम और ऋणी होते जायेंगे.
          रामविलास जी का व्यक्तित्व शास्त्रीय किस्म का था. और जैसी शास्त्रीयता के साथ विडंबना होती है, रामविलास जी की पहुँच भी आम साहित्यक लोगों तक नहीं हो पायी. इतना महत्वपूर्ण लेखन कुछ विशिष्ट पाठक वर्गों तक ही सीमित रहा. समकालीन साहित्यकारों की पीढ़ी उनहें पूजती ज़रूर है लेकिन वह प्रेम उनहें नहीं देती जो इस कद्दावर आलोचक को मिलना चाहिए. इसकी एक वज़ह शायद यह हो सकती है कि बाद के वर्षों में उन्होने समकालीन साहित्य से अपने आपको बिल्कुल अलग कर लिया था. उन्होंने अतीत पर बहुत काम किया. और इसीलिए वामपन्थी विचारक उन्हें हिन्दुत्ववादी कहने से भी नहीं हिचकिचाए.वे न तो समकालीन साहित्य पढ़ते थे और न ही उस पर कुछ लिखा. रामविलास शर्मा  प्रेमचन्द और अमृतलाल नागर को क्रमशः श्रेष्ठ कथाकार मानते थे और इनके बाद इनकी सूची में कोई नाम नहीं था. इसी तरह निराला, प्रसाद, पंत, केदारनाथ अग्रवाल और त्रिलोचन के साथ अच्छे कवियों की सूची भी बन्द हो जाती थी.
          रामविलास जी नौजवानों की आज की पीढ़ी को एकदम भ्रष्ट मानते थे और कहते थे कि आज की पीढ़ी में संस्कार नाम की कोई चीज़ है ही नहीं. मौजूदा हालात पर उनका कहना था कि सबसे पहले बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से देश को मुक्त करो. एक नयी भाषा-नीति बनायी जानी चाहिए. हम भाषायी स्तर पर संगठित नहीं हैं, इसलिए राजनैतिक स्तर पर भी बंटे हुए हैं. इक्कीसवीं सदी के आ जाने भर से हालात् नहीं बदलेंगे, जब तक कि पूँजीवाद और साम्राज्यवादी शक्तियों के ख़िलाफ लड़ाई तेज़ नहीं होती.
          हमारे देश में इतिहास-लेखन की एक दिक्कत यह रही है कि जितने भी इतिहासकार हैं उन्होने सारा लेखन अँग्रेजी में किया.ये लेखक हिन्दी में लिखने वालों का उपहास भी करते हैं. अतः हिन्दी के साहित्यकारों को इतिहास लेखन की भी जिम्मेदारी उठानी पड़ी. रामविलास शर्मा ऐसे लेखकों में अग्रणी थे..भारतीय संस्कृति और वेदों पर अपने काम की वज़ह से रामविलास जी उन लोगों में भी स्वीकार्य थे जो सिद्धान्ततः मार्क्सवाद-विरोधी थे. अपने जीवन के अंतिम दिनों में भी ये लिखते रहे और कुछ महत्वपूर्ण काम अधूरे छोड़करचले गये.
         एक महत्वपूर्ण बात यह कि उन्होने अपना सारा लेखन हिन्दी में किया, जबकि अँग्रेजी में भी उनका समान अधिकार था.इससे अपनी भाषा के प्रति उनकी आस्था और आग्रह को पहचाना जा सकता है. रामविलास जी ने हिन्दी भाषा के विकास के लिए नारे नहीं लगाये, बल्कि भाषा, संस्कृति और समाज का चरित्र-निर्माण कैसे करती है, इसका बहुत तार्किक और सोदाहरण विश्लेषण किया. भाषा-विवेचन उनके सम्पूर्ण आलोचना कर्म की मुख्य-प्रतिज्ञा है.इसी केन्द्र के चारों ओर रामविलास जी ने अपने समस्त चिन्तन की परिधि तैयार की.
        हिन्दी क्षेत्र के लेखकों के सामने अब रामविलास शर्मा के लेखन का मूल्यांकन करने की एक बड़ी चुनौती है.हालांकि आज कोई समर्थ मूल्यांकनकर्ता हिन्दी में दिखाई नहीं पड़ रहा है. सामर्थ्य से भी बड़ी दिक्कत प्रवृत्ति की है. अतीत की ओर देखना हमारी वामपंथी मानसिकता को स्वीकार नहीं, और दक्षिणपंथियों के हाथ में उन्हें सौंप देने से बड़ा अनर्थ हो जायेगा.

1 comment:

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

लेख पसंद आया अच्छी प्रस्तुती,बधाई ....

दीपावली की शुभकामनाये.....