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Thursday 23 February 2012

वीरान

मैं पृथ्वी की एक घनी बस्ती का वीरान हूँ
जिसे ठीक ठीक देखने के लिए
आपको पर्यटक बनना पड़ेगा.

मेरी स्थिति
बस्ती के बीचों-बीच तो नही ही है
पर इसे पूरी तरह
एक किनारे भी नहीं कहा जा सकता.

दरअसल लोगों के पलायन ने
इस वीरान का भूगोल ही बदल दिया है.

बस्ती के लोग कभी कभार
इधर से गुजरते ज़रूर हैं
पर इस वीरान को देख कर
उनकी स्मृति में कुछ उभरता हो-
ऐसा कभी लगा नहीं.

अक्सर लोगों को यह भी याद नहीं रहता
कि इस बस्ती में कोई वीरान भी है.

फिर भी यहाँ
एक घर का उजाड़ है
कुछ अजीब सी वनस्पतियाँ है
जिन्हें रोज़मर्रा के जीवन में
पहचाना नहीं जा सकता.

एक पुराने पेड़ पर
कुछ पक्षियों का ठिकाना है
जो दिन भर कहां आते जाते हैं
यह कौन पता करता है भला !

बस्ती में जब जब
कोई खुशनुमा मौसम आता है
इस वीराने को
थोड़ा और वीरान कर जाता है.

कभी कभी यह वीरान
इतना बड़ा हो जाता है
कि इसमें
एक बस्ती दिखने लगती है.
          **

1 comment:

***Punam*** said...

"मैं पृथ्वी की एक घनी बस्ती का वीरान हूँ
जिसे ठीक ठीक देखने के लिए
आपको पर्यटक बनना पड़ेगा."


ऐसा वीराना होता है हर इंसान के अन्दर...
और शायद ही कोई वहां तक पहुँच पाता है....