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Wednesday 28 March 2012

रपट : स्मृति कमला प्रसाद


          हम जैसे ही सतना पहुँचे थोड़ा निराश हो गये. ख़बर मिली कि आयोजन में नामवर सिंह और विश्वनाथ त्रिपाठी स्वास्थ्य ठीक न होने के कारण नहीं आ पाये. जिन लोगों ने नामवर सिंह और विश्वनाथ जी को बोलते सुना है, वो समझ सकते हैं कि इन दोनो वक्ताओं को सुनने का मोह कैसा होता है. इसी लिहाज़ से हमारे लोभ और निराशा का अंदाज़ा भी लगाया जा सकता है. इनके न आने के पीछे जो कारण बताया गया उस पर संदेह करने की कोई गुंजाइश नहीं थी क्योंकि जैसा स्नेह और साथ कमला प्रसाद के साथ इन दोनो का था, तो अगर पाताल में भी यह आयोजन रखा जाता तो नामवर और विश्वनाथ जी ज़रूर पहुँचते. यह आयोजन कमला प्रसाद की प्रथम पुण्यतिथि पर 25 मार्च 2012 को, प्रगतिशील लेखक संघ(प्रलेस) और हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने उनकी जन्मस्थली सतना में किया था.....और कोई यह मानने को तैयार ही नहीं था कि आज कमला प्रसाद हमारे बीच नहीं हैं. शायद इसी भावुकता के चलते संयोजक ने कार्यक्रम की शुरुआत में ही यह घोषणा कर दी कि यह कार्यक्रम हम नहीं कमला प्रसाद ही संचालित कर रहे हैं.
         खैर ! उपरोक्त सूचना से उपजी निराशा , तब आह्लाद में बदल गई जब हम कार्यक्रम के पहले स्वल्पाहार करते हुए, अपने स्नेही वरिष्ठ रचनाकारों से अर्से बाद मिले. काशीनाथ सिंह, रमाकान्त श्रीवास्तव,अजय तिवारी,महेश कटारे,रामशरण जोशी,लज्जाशंकर हरदेनिया,जयप्रकाश धूमकेतु,राजेन्द्र शर्मा,अरुण कुमार, प्रो.शबनम,विजय अग्रवाल आजि कई लोगों से बेहद आत्मीय तरीके से हाल-चाल लेना-देना और गले मिलना हुआ. कुछ गिले-शिकवे भी हुए...साथ-साथ स्वल्पाहार भी.
         पर निराशा आज छोड़ने को तैयार नहीं थी शायद. कार्यक्रम शुरू होते ही फिर आ धमकी और अंत होते –होते गहरा गई. मुख्य कार्यक्रम को दो सत्रों में बांटा गया था. पहला सत्र, ‘ प्रगतिशीलता की अवधारणा और कमला प्रसाद ‘ पर केन्द्रित करना था, और दूसरे सत्र में संस्मरण होने थे. लेकिन यह शायद इस कार्यक्रम की नियति थी कि दोनों ही सत्र लगभग संस्मरणात्मक हो गये. यद्यपि इसमें कुछ बुरा भी नहीं हुआ. बुरा तो यह हुआ कि पूर्व नियोजित रूपरेखा में अचानक बदलाव कर देने से कार्यक्रम का गठन बिगड़ गया. मसलन, दोनों सत्रों के पूर्व निर्धारित संचालकों और वक्ताओं की अदला-बदली और प्रथम सत्र के विषय में आंशिक किन्तु असुविधाजनक परिवर्तन.....’प्रगतिशीलता की अवधारणा’ की ज़गह ‘प्रगतिशील आंदोलन’ कर देना कोई मामूली बदलाव नहीं था. शायद यह किसी किसी प्रभावशाली वक्ता का आग्रह रहा होगा !
              पहले सत्र का आरंभ करते हुए संचालक-वसुधा के संपादक-राजेन्द्र शर्मा ने एक पुरानी परंपरा को तोड़ा---और क्या खूब तोड़ा ! उन्होने पहले वक्ता के रूप में सत्र की अध्यक्षता कर रहे प्रो. अजय तिवारी(दिल्ली) को बुला लिया. अजय तिवारी ने अपने वक्तव्य की शुरुआत वर्षों पहले की उस घटना को याद करते हुए किया , जब कमला प्रसाद ने उनसे कहा था कि ‘मुक्तिबोध के रक्त में मार्क्सवाद है’. अजय जी ने कहा कि यह कथन कमला प्रसाद के लिए भी उतना ही सत्य है. कमला प्रसाद से प्रथम परिचय मार्क्सवाद और प्रगतिशील आंदोलन से जोड़ कर ही होता है. साम्राज्यवाद और सामंतवाद से संघर्ष, प्रगतिशील आंदोलन के लक्ष्य थे और इनके लिए कमला प्रसाद ने संगछन के माध्यम से सभी खतरे उठाये. कमला जी ने साहित्यिक मूल्य के तौर पर जनता का मूल्य समझा था, इसीलिए वो आज भी प्रसंकिक हैं. हालांकि अजय तिवारी ने यह कह कर सभा में थोड़ी हलचल पैदा कर दी थी कि ‘कमला प्रसाद इमरजेंसी को सपोर्ट करते थे’. लगा कि चर्चा कहीं भटक न जाये. ऐसी ही आशंका दोबारा तब हुई जब वरिष्ठ पत्रकार रामशरण जोशी ने स्व. अर्जुन सिंह के महिमागान के साथ उनके और कमला प्रसाद के मधुर संबन्धों को उजागर किया. पर किसी कद्दावर वक्ता के अभाव में इन टिप्पणियों ने तूल नहीं पकड़ा. जोशी जी ने अर्जुन सिह के साथ अपनी-सुदीप बनर्जी और कमला प्रसाद की टीम द्वारा की गई रचनात्मक चर्चाओं को ही केन्द्र में रखा और यह भी कहा कि कमला प्रसाद अपनी ज़गह और समय से आगे जाते हैं—इसी से उनका महत्व बनता है.
          वर्षों तक कमला प्रसाद के प्रिय और अभिन्न सहयोगी रहे कथाकार रमाकान्त श्रीवास्तव ने कमला प्रसाद के निर्माण में उनके परिवार की भूमिका का उल्लेख किया. विशेष तौर पर उनकी पत्नी श्रीमती रामकली पाण्डेय का. रमाकांत जी ने एक बहुत महत्वपूर्ण बात की ओर ध्यान दिलाया कि संगठन और प्रगतिशील आंदोलन के लिए किए गये विराट काम के आगे कमला प्रसाद का रचना संसार चर्चा में पीछे छूट गया है. जबकि मार्क्सवाद, आलोचना और समकालीन विषयों पर दर्जन भर से अधिक महत्वपूर्ण किताबें उन्होने लिखी हैं. उन्होने आग्रह किया कि अब समय आ गया है जब कमला जी के लेखन पर गंभीरता से चर्चा की जाये. कमला प्रसाद में असहमतियां सहने का अपार धैर्य था. कुछ वर्षों से वो प्रगतिशील संगठनों का एक साझा मंच तैयार करने की योजना बना रहे थे, ताकि नव-साम्राज्यवादी ताकतों से मुकाबला किया जा सके.
          चर्चा को आगे बढ़ाते हुए अरुण कुमार का मानना था कि कमला प्रसाद भारतीय भाषाओं की प्रगतिशील परंपरा को सामने लाने की कोशिश कर रहे थे. इसी क्रम में उन्होने विभिन्न भारतीय भाषाओं के साहित्य पर वसुधा के विशेषांक निकालने की योजना बनाई थी. सबको साथ लेकर चलने के कमला प्रसाद के गुण की चर्चा करते हुए उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि प्रलेस ही अब एकमात्र ऐसा संगठन है जो साम्राज्यवाद के खिलाफ सबको साथ लेकर चल सकता है.
          भारत में प्रगतिशील आंदोलन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की याद दिलाते हुए कमला प्रसाद के प्रिय शिष्य आशीष त्रिपाठी ने चिंता जाहिर की, कि कई बार प्रगतिशील शक्तियों की भाषा यथास्थितिवादी और पुनरुत्थानवादी शक्तियों की भाषा से मिलती-जुलती लगती है. एक दौर में CPI  के अलोकतांत्रिक दबाव के चलते प्रगतिशील आंदोलन का विघटन हुआ, लेकिन नक्सलवाड़ी आंदोलन के उभार ने प्रगतिशील आंदोलन के पुनर्गठन में मदद की. आशीष का कहना था कि जो लोग आज कमला प्रसाद पर नकारात्मक टिप्पणियाँ कर रहे हैं, उन्हें पहले आत्मावलोकन करना चाहिए. अभिनव कदम के संपादक जयप्रकाश धूमकेतु ने भी इस सर्वमान्य सत्य को कहा कि कमला प्रसाद हमेशा नये रचनाकारों  को आगे बढ़ाते रहे और उन पर विश्वास करते रहे. कुछ और वक्ताओं के वक्तव्यों के साथ पहला सत्र समाप्त हुआ. कुल मिलाकर यह सत्र ठीक-ठाक ही गया पर यह खलिश रह ही गई कि काश इस सत्र में काशीनाथ सिंह, महेश कटारे, दिनेश कुशवाह आदि को भी सुन पाते. इसकी कसक भोजनावकाश के समय थोड़ी कम ज़रूर हो गयी जब सबने अपने प्रिय लेखकों से अनौपचारिक मेल-मिलाप किया.
          दूसरा सत्र संस्मरण का सत्र था, जिसकी सदारत कथाकार काशीनाथ सिंह कर रहे थे. संचालक दिनेश कुशवाह ने भी अगर परंपरा तोड़ी होती तो बहुत से लोग काशीनाथ सिह के ‘तीसरे भाई’ कमला प्रसाद पर बोलते हुए, उन्हें सुनने से वंचित न रह जाते. इस सत्र में वक्ताओं की भीड़ बहुत थी. शाम को बहुतों को लौटना भी था. इसलिए श्रोता भी कम ही बचे थे.फिर भी लोगों ने कमला प्रसाद के साथ बिताए हुए समय को याद किया. इस सत्र में काशीनाथ सिंह,महेश कटारे,लज्जाशंकर हरदेनिया, सुषमा मुनीन्द्र, चन्द्रिका प्रसाद,बहादुर सिंह परमार,विजय अग्रवाल,सेवाराम त्रिपाठी,हनुमंत किशोर,प्रो. शबनम,प्रवेश तिवारी आदि वक्ताओं ने भाव विभोर होकर कमला प्रसाद को याद किया. पूरे आयोजन में कमला प्रसाद के परिवार के सभी सदस्य भी मौजूद थे. ताईजी, उनके सभी बेटे-बहू-बेटियाँ-दामाद. इसी सत्र में उन पर एक स्मारिका का विमोचन हुआ. स्मारिका क्या थी, एक फोटो एलबम नुमा कुछ था. इसके संपादक प्रहलाद अग्रवाल से एक बेहतर स्मारिका की उम्मीद हम सबको थी. इसी बीच एक बेहद भावुक क्षण तब आया , जब कमला प्रसाद के पुत्र जैसे दामाद—फिल्मकार राजीव गोहिल-को काशीनाथ जी ने स्मारिका भेंट की और दोनों लिपट कर रो पड़े.
          रात में कवि-गोष्ठी के साथ ही आयोजनो के लिए विख्यात पुरोधा कमला प्रसाद की पहली पुण्यतिथि पर कार्यक्रम सम्पन्न हुआ. इसमें यह चर्चा भी हुई कि जल्द ही देश को एक दूसरे कमला प्रसाद की खोज कर लेनी पड़ेगी.......पर क्या यह इतना आसान है ?????
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Monday 19 March 2012

' बदनाम औरतों के नाम प्रेमपत्र '


                 1.

रात गये    
इनकी देह में फूलता है हरसिंगार
जो सुबह
एक उदास सफेद चादर में तब्दील हो जाता है.

इनके तहखानों में
पनाह लेते हैं
उन कुलीन औरतों के स्वप्न-पुरुष
जिनकी बद् दुआओं को
अपने रक्त से पोषती हैं ये.

इनकी कमर और पिण्डलियों में
कभी दर्द नहीं होता
और कंधे निढाल नहीं होते थकान से.
इनके स्तनों पर
दाँत और नाखूनों के निशान
कभी नहीं पाये गये.

पढ़े लिखे होने का कोई भी
सबूत दिए बगैर
वे अपने विज्ञान को
कला में बदल देती हैं.

ये आज भी
दस बीस रुपये मे
बाज़ार करके लौट आती हैं
भगवान जाने
इनके चाचा दाई और जिज्जी की
दूकानें कहाँ लगती हैं

अपने जन्म की स्मृतियों का
ये कर देती हैं तर्पण
और मृत्यु के बारे में 
इसलिए नहीं सोचतीं
कि हर चीज़ सोचने से नहीं होती.

प्रेम मृत्यु है
इन बदनाम औरतों के लिए.

                   2.

इतिहास के अंतराल में कहीं
होती है इनकी बस्ती
जहाँ सभ्यताओं की धूल
बुहार कर जमा कर दी गई है.

इनके भीतर हैं
मोहन जोदड़ो और हड़प्पा के ध्वंस
पर किसी पुरावेत्ता ने
अब तक नहीं की
इनकी निशानदेही.

इन औरतो की
अपनी कोई धरती नहीं थी
और आसमान पर भी नहीं था कोई दावा
इसीलिए इन्होंने नहीं लड़ा कोई युद्ध.

कोई भी सरकार चुनने में
इनकी दिलचस्पी इसलिए नहीं है
कि सरकारें
न तो जल्दी उत्तेजित होती हैं
और न जल्दी स्खलित !


Monday 12 March 2012

बचपन, दुनिया को बूढ़ा होने से बचाता है !


 महात्मा गाँधी उस दिन वर्धा आश्रम में कुछ विद्वानों के साथ बैठकर बच्चों की बुनियादी शिक्षा के ढाँचे पर चर्चा कर रहे थे. अचानक उन्होंने कहा- “ मैं स्कूल की किसी कक्षा में जाकर पूछूँ कि मैने एक सेब चार आने में खरीदा और उसे एक रुपये में बेच दिया तो मुझे क्या मिलेगा ? मेरे इस प्रश्न के जवाब में अगर पूरी कक्षा यह कह दे कि आपको जेल की सज़ा मिलेगी तो मैं मानूँगा कि यह आज़ाद भारत के बच्चों के सोच के मुताबिक शिक्षा है.”…….यह प्रसंग मुझे इसलिए याद आया कि इस समय पूरे देश में बच्चे परीक्षा दे रहे हैं. और एक तरह से पूरा देश ही परीक्षा दे रहा है. ये बच्चे सिर्फ किसी एक देश का भविष्य नहीं हैं, बल्कि अंततः पूरी दुनिया का भविष्य हैं.
                  अभी-अभी होली का त्यौहार गुज़रा. होली पर बच्चों को रंग खेलते हुए देखकर याद आया कि कई वर्षों से इस त्यौहार में बच्चों की सहभागिता लगभग खत्म होती जा रही थी. एक तो होली ऐसे समय में आती है जब अधिकांश बच्चों की परीक्षाएं चल रही होती हैं. कोई बच्चा या उसके माँ-बाप ऐसे मौके पर समय गंवाने की हिमाकत नहीं कर सकते. हमारी गलाकाट प्रतिष्पर्धा ने बच्चों से उनका बचपन छीन लिया. हमारी शिक्षा व्यवस्था बच्चों के स्वाभाविक विकास के सारे रास्ते बन्द करती जा रही है. बच्चों के पास आत्मनिर्णय के अवसर सपनों तक में नहीं बचे हैं. मनोवैज्ञानिकों का भी मानना है कि बचपन की स्वाभाविक रुचियों के दमन से मनुष्य में आगे चलकर कुण्ठाएँ,नफरत और क्रूरताएँ पैदा होती हैं, जो अंततः युद्धों और महाविनाशों की ओर ले जाती हैं. बचपन की चिन्ता न करने से आगे के जीवन में चिन्ताएँ ही चिन्ताएँ पैदा हो जाती हैं.
                आपको याद ही होगा अब्राहम लिंकन का वह कालजयी पत्र, जो उन्होने अपने बेटे के शिक्षक को लिखा था----“ अध्यापक महोदय ! मेरे बेटे को यह ज़रूर सिखाएँ कि श्रम से कमाया एक रुपया, बिना श्रम मिले पांच रुपये से अधिक मूल्यवान है. उसे सिखाना ईर्ष्या से दूर रहना. यदि तुम उसे सिखा सको तो सिखाना, अपनी मुसीबतों से हँसकर जूझना........अगर संभव हो तो उसे किताबों के आश्चर्यलोक का ज्ञान अवश्य कराना. परन्तु उसे इतना समय भी देना, कि वह नीले आकाश में विचरण करते पक्षी समूह के शाश्वत सत्य को जान सके, सुनहरी धूप में गुनगुनाती मधुमक्खियों और हरे पर्वतों की गोद में खिले फूलों को देख सके..........मेरे पुत्र को ऐसा मनोबल देना कि वह भीड़ का अनुसरण न करे. उसे सिखाना कि जब सभी एक स्वर में गाते हों, तब वह उन्हें धैर्य से सुने, किन्तु वह जो कुछ सुने उसे सत्य की छलनी में छान ले..........उसे दुख में हँसना सिखाएँ, और बताएँ कि आँसुओँ में कोई शर्म की बात नहीं होती........उसे अपनी बुद्धि और बाहुबल से भरपूर कमाना सिखाएँ, परन्तु यह भी सिखाएँ कि अपने हृदय और आत्मा की कीमत न लगाए.........अधीर होने का साहस भी उसमें उत्पन्न करना, और बहादुर होने का धैर्य भी. उसे सिखाना कि वह सदैव, अपने आप में उदात्त आस्था रखे, क्योंकि तभी वह मनुष्य जाति में आस्था रख पायेगा.....”
                 लिंकन का यह पत्र शाश्वत है. यह बच्चों के मनोविज्ञान, उनकी शिक्षा और उनके भविष्य की बात कहता है, और इस तरह से दुनिया के चरित्र और भविष्य की ही बात करता है. इस ज़गह पर आप अवश्य ही यह सोचना चाहेंगे कि हमारे आज के बच्चे कैसे हैं, और हमारी शिक्षा-पद्धति क्या उन्हे सही भविष्य  दे पा रही है ? तो पहले यही देख लेते हैं कि हमारे आज के नौनिहाल हैं कैसे, जिनके ऊपर इस दुनिया का भविष्य टिका है ??                          

                  इस समय देश के अधिकांश बच्चे परीक्षा दे रहे हैं. हमारे देश मे परीक्षा होती नही,बल्कि ली और दी जाती है.मुझे यह दृश्य ऐसा दिखता है जैसे एक साथ अनेक रोबोट अपने निर्माता के सामने अपनी क्षमता और उपयोगिता साबित कर रहे हों.उनके भीतर जितना फीड कर दिया गया है बस उसी का प्रदर्शन...आप सब ये जानते हैं कि एक साजिश के तहत हमारी पूरी शिक्षा-पद्धति बच्चों को रोबोट बना रही है.दरअसल उपभोक्तावादी संस्कृति मे ऐसे लोगों की कतई ज़रूरत नहीं होती जिनके पास अपना निजी व्यक्तित्व हो.
                बच्चों में व्यक्तित्व नदारत होता जा रहा है.दुनिया के सारे बच्चे एक से दिखते हैं.एक जैसा बोलते हैं,एक जैसा खाते-हंसते-रोते हैं.वैश्वीकरण का यह प्रभाव है कि सबके राग-द्वेष एक ही जैसे हो गये हैं. इस दुनिया के आक्रामक संचालकों ने अपने मंसूबों के लिए सबसे कोमल और निरीह लोगों को चुना है.बच्चे उनके लिए ऐसे संसाधन हैं जिन्हें अपने हित के लिए बड़ी आसानी से प्रोग्राम किया जा सकता है.ये कोरा कागज़ हैं,इन पर जो चाहो वह लिखा जा सकता है.
              ऐसी व्यवस्था की जा रही है कि बच्चों के भीतर सृजनात्मकता पैदा ही न पाये.'सृजनात्मकता' हमेशा 'व्यवस्था' के लिए खतरनाक होती है.सारे बच्चे 'सूचना-केन्द्रों' के रूप मे ही सफल/असफल हो रहे हैं.दुनिया के सारे सूचना माध्यमों द्वारा ऐसी शिक्षा बच्चों को दी जा रही है जो उन्हें उपयोगी माध्यम के रूप में तैयार करें.बच्चे साधन हैं अब,साध्य नहीं.
                बच्चों के इर्द-गिर्द आभासी छवियों का ऐसा जाल बुन दिया गया है कि वास्तविक चीज़ों से उनका परिचय खत्म होता जा रहा है.बच्चे अब खेलते नहीं,खेल देखते हैं.इसीलए हार बर्दाश्त करना भी नहीं आता.उनमें कौशल की कमी होती जा रही है.थोड़ी विषम परिस्थिति को भी सम्भाल पाने में ये असमर्थ दिखते हैं.रिश्तों और भावनाओं की समझ इन बच्चों में न्यूनतम स्तर पर पहुँच गई है.आगे चलकर यही पारिवारिक विखंडन का कारण बनता है.प्रकृति से बच्चों का रिश्ता अब पूरी तरह से बदल गया है. वे प्रकृति को पर्यटक की तरह तो देखते हैं,उसके सहचर और प्रमी नहीं बन पाते.
                दुखद पहलू ये है कि इस पूरी साजिश में अभिभावक भी शामिल हैं या शायद मज़बूर....लीक छोड़कर चलने का जोखिम कोई नहीं उठाना चाहता.ऐसा दिखता है कि एक अंधी दौड़ में सब भागे चले जा रहे हैं अपने बच्चों को लेकर.उनके पास यह सोचने का समय ही नहीं है कि वो अपने बच्चे को कहां लिए जा रहे हैं.
                जिस तरह की ये दुनिया बन रही है,उसे सब कोसते हैं,पर उसे बदलने की कोशिश करने वाले नगण्य हैं.दुनिया की अगली शक्ल आज के यही बच्चे बनायेंगे.क्या हम इन्हें साजिशों से बचा नहीं सकते ?हम इन बच्चों को एक व्यक्तित्व नहीं दे सकते??इस दुनिया को अगर रहने लायक रहने देना है तो हमें इन बच्चों को साजिशों से बचाना होगा.इनके हाथ में घड़ा नहीं,मिट्टी दीजिए.इन्हें गिरने दीजिए और गिर के संभलने की तमीज़ दीजिए.

                अब यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि हमारे देश में साक्षरता के आँकड़ों में कितना दूध है और कितना पानी ! लेकिन दुनिया के कुछ देशों ने बच्चों की शिक्षा के महत्व को समझा और अचंभित कर देने वाले बदलाव किए. जापान, इटली, अमेरिका, ब्रिटेन और यहाँ तक कि क्यूबा जैसे छोटे से देश ने बच्चों की शिक्षा को अपनी मुख्य प्रतिज्ञा में रखा और पूरा दृश्य बदल गया. रोचक बात यह है कि इन देशों में शिक्षा की अलख जगाने में बच्चों की अहम भूमिका रही.
                अमेरिका के ठीक मुहाने पर स्थित क्यूबा के बच्चों ने अमेरिका समेत सारी दुनिया को चौंका दिया था. वर्षों पहले क्यूबा के राष्ट्रपति फिदेल कास्त्रो ने अपने देश के बच्चों को लेकर एक अनूठा प्रयोग किया. उन्होने बच्चों से पूछा----“ क्या आपको यह अच्छा लगेगा कि आपके देश को कोई अनपढ़ कहे ? अगर नहीं, तो आप सबको शिक्षक बनना पड़ेगा. “  कक्षा आठवीं पास सभी बच्चों को कास्त्रो ने तीन चीज़ें पकड़ाईं—पुराने किले, कन्दील और किताब-स्लेट. बच्चे दिन में अपनी पढ़ाई करते और शाम होते ही हाथों में कन्दील लेकर पहाड़ी, गाँवों, नगरों-मोहल्लों में निकल जाते. वहाँ सबको पढ़ाते और लौट आते. और तीन साल में ही पूरा क्यूबा पढ़ा-लिखा बन गया. इस चमत्कार पर एक अमेरिकी शिक्षाविद जोनाथन काजोल ने  जब एक किताब लिखी—‘ क्रांति की बाराखड़ी ‘---तो कास्त्रो के इस कमाल से पूरी दुनिया चौंक गई.
               शायद आप उस जापानी लड़की तोतो चान को को भी जानते हों, जिसकी वज़ह से जापान ने स्कूल शिक्षा का ऐसा मॉडल तैयार किया जो पूरी दुनिया में जॉयफुल स्कूल के रूप में बहुत लोकप्रिय हुआ. तोतो जब दो-तीन बरस की थी तभी से उसे घर की खिड़की पर खड़े रहने की आदत बन गई. रास्ते से गुज़रने वाले हर शख्स को आवाज़ देकर उससे बतियाती. और इस तरह उसके पास ज्ञान का अद्भुत ख़जाना भर गया. सात साल की होने पर उसकी मां उसे स्कूल में दाखिला दिलाने ले गई. वह अपने शिक्षकों से इतने सवाल करती कि वो सब तंग हो गये और उसकी माँ से उसे स्कूल से निकाल लेने को कहा, कि ये हमारा स्कूल बिगाड़ देगी. इस तरह तोतो चान को करीब सात स्कूल छोड़ने पड़े. अंत में उसकी माँ उसे एक अलग तरह के स्कूल में ले गई. यह स्कूल रेल की खराब पड़ी बोगियों में चलता था. इस स्कूल को देखते ही तोतो खुशी से उछल पड़ी. स्कूल की संचालिका ने जब उससे पूछा कि तुम पहाड़ खाओगी या समुद्र, तो वह चौंक गई. बाद में जब उसने देखा कि जो बच्चे पहाड़ खाना चाहते थे उन्हे आलू दिया गया और जो समुद्र खाना चाहते थे उन्हें मछली. इससे उसने सीखा कि आलू पहाड़ पर पैदा होते हैं और मछली समुद्र में. बाद में जापान सरकार ने तोतो चान की कहानी से प्रेरित होकर ऐसे ही स्कूल बनाये और बच्चों की शिक्षा का पूरा तौर-तरीका ही बदल गया.
                   दुनिया की तमाम अच्छी शिक्षा-पद्धतियाँ बच्चों मे क्रियात्मक ज्ञान की हिमायती हैं. वह चाहे ब्रिटेन के ‘समरहिल स्कूल ‘ की कहानी हो या गुजरात के गिजुभाई बधेका की. चाहे महात्मा गाँधी की बुनियादी शिक्षा हो या इटली के पहाड़ी गाँव बारबियाना के उस पादरी का वह स्कूल, जहां उन आवारा बच्चों को शिक्षित किया गया जिन्हें दूसरे स्कूलों ने असभ्य और जंगली कहकर निकाल दिया था. इन बच्चों के पत्र ‘ गुरूजी के नाम पत्र ‘ नामक एक किताब में छपकर, दुनिया में मशहूर हो गये थे. इन पत्रों में बच्चों ने एक बड़ी मार्मिक बात लिखी. बच्चे टीचर से कहते हैं कि “ टीचर, यह जो कलम है न आपके हाथ में, इसे फेंक दीजिए. आप हमें छड़ी से भले पीट लें. छड़ी का निशान तो मिट जायेगा, मगर यह कलम जो हमारे जीवन पर पास-फेल का निशान बना देती है, वह निशान कभी नहीं मिटेगा. “
                   यह एक बड़ी कड़वी और चिन्ताजनक सच्चाई है कि हमारे स्कूल बच्चों के लिए एक तरह के मानसिक यंत्रणा-घर बनते जा रहे हैं. अभी हाल ही मे राष्ट्रीय बालअधिकार संरक्षण आयोग और स्वयं सेवी संस्था ‘प्रथम’ के सालाना सर्वेक्षण की रिपोर्ट में बड़े ही चौंकाने वाले तथ्य सामने आये हैं. आमतौर पर यह ना जाता है कि निजी विद्यालयों में सरकारी विद्यालयों की अपेक्षा बच्चों के विकास के लिए ज्यादा अच्छा वातावरण होता है. लेकिन आयोग की रिपोर्ट से यह बात भ्रम साबित होती है. रिपोर्ट से पता चलता है कि देश के निजी स्कूलों में 83.6 फीसदी लड़कों और 84.8 फीसदी लड़कियों को किसी न किसी तरह के मानसिक उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है. वहीं केन्द्र सरकार के अधीनस्थ स्कूलों में यह आँकड़ा क्रमशः 70.5 और 72.6 प्रतिशत है. जबकि राज्य सरकारों की स्कूलों में यह आँकड़ा थोड़ा बढ़कर 81.1 और 79.7 फीसदी पर पहुँच जाता है.
                  आमतौर पर बच्चों से यह कहा जाता है कि उनमें पढ़ने लिखने की काबिलियत ही नहीं है. अमेरिका में शिक्षाशास्त्री जार्ज डेनीसनने एक विशाल शिक्षक समूह से पूछा कि आप किसे पढ़ाते हैं ? सभी ने कहा—‘ बच्चों को ! ‘  डेनीसन ने कहा, यह गलत है....आप बच्चों को पढाते ही नहीं. आप पाठ्यक्रम को पढ़ाते हैं. बच्चो को पढ़ाते होते तो उनसे आपके ऐसे सम्बन्ध होते ही नहीं. हमारे यहाँ बच्चों के साथ पशुसूचक और  जातिसूचक शब्दों का व्यापक प्रयोग किया जाता है. निजी स्कूलों में बच्चों के साथ शिक्षकों का सम्बन्ध , उनके माँ-बाप के आर्थिक रुतबे से भी तय होता है. ऐसे में यह कल्पना करना कि बच्चों में आत्सम्मान, आत्मनिर्णय की क्षमता और रचनात्मकता विकसित होगी, दुनिया के भविष्य को खतरे में डालना ही होगा. और जब बच्चों से पूछा जायेगा कि संगीत और शोर में क्या अंतर है ? तो बच्चे कहेंगे----“ सर, जब स्कूल मे आने की घंटी बजती है, तो वह शोर होता है.और जब छट्टी की घंटी बजती है, तो संगीत जैसी लगती है.”

Monday 5 March 2012

मैं धर्म के अविरुद्ध 'काम ' हूँ !


  यह उद्घोषणा गीता के सातवे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में श्रीकृष्ण कर रहे हैं. मेरे भीतर कृष्ण का यह उद्घोष उसी दिन से धीरे-धीरे बजने लगा है, जिस दिन से फगुनहटी हवा चलने लगी. यह वसन्त के आने की मुनादी थी जो हवाओं में बज रही थी. यह मदनोत्सव की ऋतु है, जो सरसो के खेतों में उतर आयी है. यह सृजन का अनुनाद था जो आम और अशोक के पेड़ों में गूँज रहा है. जैसे-जैसे होली नजदीक आने लगी , मन कुछ और का और होने लगा. सिर्फ मेरा ही नहीं, प्रकृति के सभी चर-अचर कुछ और ही रंग में दिखने लगते हैं---

                                       औरैं भाँति कोकिल, चकोर ठौर-ठौर बोले,
                                       औरैं भाँति सबद पपीहन के  बै गए ।
                                       औरैं रति, औरैं रंग, औरैं साज, औरैं संग,
                                       औरैं बन, औरैं छन, औरैं मन ह्वै गए  ।।

वसन्त की यही असली पहचान है कि हम कुछ और का और हो जाते हैं. यह और हो जाना, जितना बाहर दिखता है, उससे भी ज़्यादा भीतर होता है. इस बदलाव की ठीक-ठीक पहचान भी कहां हो पाती है. बस अभिलाषाओं, आकांक्षाओं का एक ज्वार उमड़ता रहता है गहरे कहीं.कालिदास कहते हैं कि वसन्त आता है तो सुखित जन्तु (चैन से रहने वाला आदमी) भी न जाने किसके लिए पर्युत्सुक (बेचैन ) हो उठता है.जहां भी कुछ सुन्दर दिखा, मन बहक जाता है.

                   वसन्त 'काम' की ऋतु है और होली उद्दाम काम का उत्सव, प्राचीन भारत में वसन्त उत्सव काम-पूजा का उत्सव था. भारतीय सन्दर्भ में 'काम ', फ्रायड-युंग आदि के ' लिबिडो ' से अलग है. हमारे यहां काम सिर्फ ऐंद्रिक संवेदन नहीं है. हमारा काम दमित वासना की तुष्टि से आगे एक सर्जनात्मक आवेग है. यह हमारे जीवन का केन्द्रीय तत्व है. हमारे काम में थोड़ा मान, थोड़ा अभिमान, थोड़ा समर्पण, विपुल आकर्षण और सर्वस्व दान का भाव है. हमारी समस्त कलाएँ, राग-विराग, ग्रहण-दान, हमारे 'काम' से ही संचालित होते हैं.

                   हमारे धार्मिक ग्रन्थों में काम को परब्रह्म की एक विधायी शक्ति के रूप में माना गया है. यह परब्रह्म की उस मानसिक इच्छा का मूर्त रूप है, जो संसार की सृष्टि में प्रवृत्त होती है. इसीलिए कृष्ण कहते हैं---" धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोस्मि भरतर्षभ । "---मैं जीवमात्र में धर्म के अविरुद्ध रहने वाला 'काम' हूँ. साफ है कि जो इच्छा धर्म के विरुद्ध जाए वह काम का विकृत रूप है. शास्त्र इसे अपदेवता कहते हैं. ब्रह्मसंहिता कहती है कि धर्म के अविरुद्ध रहने वाला काम साक्षात् विष्णुस्वरूप है. यह प्राणिमात्र के मन में  'स्मर ' या काम के रूप में रहता है. काम का यह रूप हमारे भीतर सत्-चित्-आनन्द पैदा करता है.

                    काम का दूसरा रूप है जो धर्म के विरुद्ध जाता है. यह रूप व्यक्ति के विवेक को हर लेता है और उसे उद्दण्ड बना देता है. पश्चिम में काम के देवता ' किउपिद् ' माने जाते हैं, जो अन्धे हैं. यह प्रतीक है पश्चिम के उस विचार का जिसमें माना जाता है कि काम मनुष्य को अन्धा बना देता है. हमारे यहाँ इसी कोटि के मदन देवता हैं जो व्यक्ति को इतना कामातुर कर देते हैं कि अन्धा हो जाता है. शिव ने इसी मादक मदन देवता को भस्म कर दिया था. काम को  'मनसिज ' भी कहा जाता है. यह काम का भावात्मक रूप है. इसे पार्वती ने बचा लिया था. मनसिज, उद्दण्ड नहीं है. इसका स्वरूप सृजनात्मक है. यह सृष्टि का कारक है. यह हमारी शक्ति का स्रोत है. हमारे आनन्द की गंगोत्री है. हमारा काम देह की सीमाओं  का अतिक्रमण कर जाता है. हमारा काम प्रीति का, आह्लाद का, पारस्परिकता का, रसिकता का शिखर है.

                    वसन्त को कामदेव का सखा माना जाता है. हिन्दुस्तान में वसन्त की कोई निश्चित तारीख नही  होती. कवि केदारनाथ सिंह कहते हैं--" झरने लगे नीम के पत्ते, बढ़ने लगी उदासी मन की..."  नीम के पत्ते जब झड़ने लगें, आम बौरा जाएँ, पलाश पर जब अंगारे दहकने लगें और अशोक के कंधे से जब फूल फूट उठें तो समझिए वसन्त आ गया. प्राचीन ग्रंथों में अशोक में फूल खिला देने के बहुत रोचक अनुष्ठानों का वर्णन मिलता है.अशोक के फूलों का खिलना मतलब वसन्त का आना होता था. कालिदास के ' मालविकाग्नि मित्र ' और हर्ष की ' रत्नावली-नाटिका ' से पता चलता है कि मदन देवता की पूजा के बाद अशोक में फूल खिला देने का अनुष्ठान होता था. कोई सुन्दरी शरीर में गहने धारण करके, पैरों में महावर लगाकर नूपुर सहित अपने बांयें पैर से अशोक वृक्ष पर मृदु आघात करती थी.  इधर नूपुरों की हल्की झनझनाहट होती और उधर अशोक उल्लास में कंधे पर से फूट उठता. आमतौर पर यह अनुष्ठान रानी करती थी.

                    हमारा कोई प्राचीन काव्य बिना वसन्त के वर्णन पूरा ही नहीं होता. दरअसल हमारा जीवन ही वसन्त के बिना निरर्थक है. विशेष रूप से संस्कृत का कोई काव्य या नाटक उठाइए, किसी न किसी बहाने उसमें वसन्त आ ही जाएगा. ग़ज़ब तो तब हो गया जब कालिदास ने वर्षा ऋतु के काव्य ' मेघदूत ' में भी वसन्त को नहीं छोड़ा. उसमें भी यक्षप्रिया के उद्यान का वर्णन करते हुए, प्रिया के नूपुरयुक्त वामचरणों के मृदुल आघात से कंधे पर से फूट उठनेवाले अशोक और मुख मदिरा से सिंच कर उठने को लालायित वकुल की चर्चा कर ही दी. कालिदास सौन्दर्य और प्रेम के विलक्षण चितेरे हैं.

                    प्राचीन काव्य ग्रन्थों में वसन्त की महिमा का अक्सर अतिरंजन हो जाता है. वसन्त के प्रति कवियों का मोह इस कदर है कि जयदेव के ' गीत गोविन्दम् ' की पहली ही अष्टपदी वसन्त को समर्पित है----

                                                            ललित लवंगलतापरिशीलन, कोमल मलय शरीरे ।
                                                            मधुकरनिकरकरंबि कोकिल कूजित कुंज  कुटीरे ।।
                                                            विहरति हरिरिह  सरस  वसन्ते  ।
                                                            नृत्यति युवतिजनेन समं सखि विरहिजनस्य दुरंते ।।

( सखी राधा से कहती है---राधे ! सुन्दर दिखने वाले पुष्पों से लदी बेलों के स्पर्श से मादक बनी, मंद प्रवाहित होते मलय समीर के साथ, भौंरों की पंक्तियों से गुंजित तथा कोयलों के संगीत से कूजित कुंजों वाले तथा वियोगियों को संतप्त करनेवाली इस वसन्त ऋतु में प्रियतम श्रीकृष्ण, तरुणी गोपियों के साथ नृत्य कर रहे हैं. )

                    यह नृत्य वसन्त का रास है. इसमें समर्पण और यौवन के आत्मदान का भाव है. इसीलिए सखी ऱाधा को समझाती है कि मान छोड़कर, सब कुछ कृष्ण को अर्पण कर दो.....श्रीकृष्ण रसराज भी हैं. उनकी लय,ताल,यति-गति और मति से एकात्म हो जाओ....यह समय फूलने-फलने का है. यह समय भीतर-बाहर कुछ नया रचने का है. यह नृत्य आत्मोत्सर्ग का नृत्य है. यह समय हवा का हो जाने का है, फूलों का हो जाने का है....यह समय निसर्ग में खो जाने का है.

                    इसीलिए वसन्त ऋतु प्राचीन भारत में उत्सवों का समय होती थी. वात्स्यायन के कामसूत्र में इस समय कई उत्सवों का उल्लेख है. उनमें दो उत्सव सर्वाधिक प्रसिद्ध थे---सुवसन्तक और मदनोत्सव . सुवसन्तक आज का वसन्तपंचमी है, और मदनोत्सव आज की होली. होली का त्यौहार विशुद्ध रूप से उद्दाम काम का त्यौहार है. यह असल मायनों में भारत का त्यौहार है. भारत की संस्कृति से मेल खाता हुआ. यह हर भारतवासी का त्यौहार है. होली की इस व्यापक स्वीकृति का एक कारण यह है कि इसके साथ कोई धार्मिक परंपरा उस तरह से नहीं जु़ड़ी है, जैसी दूसरे भारतीय त्यौहारों के साथ. होलिका दहन की धार्मिक परंपरा अगर है भी तो वह रंग वाली होली के एक दिन पहले हो जाती है, और उसका कोई प्रभाव रंगों पर नहीं पड़ता.

                    प्राचीन भारत में फागुन से लेकर चैत के महीने तक वसन्त के उत्सव कई तरह से मनाये जाते रहे हैं. एक उत्सव सार्वजनिक तौर पर मनाया जाता था तो एक दूसरा रूप कामदेव के पूजन का था. सम्राट हर्ष की ' रत्नावली-नाटिका '  में इस सार्वजनिक उत्सव का बड़ा मोहक चित्र है. मदनोत्सव वाले दिन पूरे नगर को सजाया जाता. नगर की गलियां, चौराहे और राजभवन का प्रांगण नगरवासियों की करतल ध्वनि, संगीत और मृदंग की थापों से गूँज उठते. नगर वासी वसन्त के नशे में मस्त हो जाते. राजा अपने महल की सबसे ऊँची चन्द्रशाला में बैठकर , नागरिकों के आमोद-प्रमोद का रस लेते. यौवन से भरपूर युवतियां, जो भी पुरुष सामने पड़ जाता उसे श्रृंगक (पिचकारी ) के रंगीन जल से सराबोर कर देतीं. राजमार्गों के चौराहों पर चर्चरी गीत और मर्दल नाम के ढोल गूँज उठते. दिशाएँ सुगंधित पिष्टातक (अबीर) से रंगीन हो जातीं. अबीर के उड़ने से राजमार्ग और महल के आसपास ऐसी धुंध छा जाती कि प्रातःकाल का भ्रम हो जाता है. ऐसा लगता  मानो अपने वैभव से कुबेर को भी पराजित करने वाली कौशाम्बी नगरी सुनहरे रंग में डुबा दी गई हो.

                     दूसरा विधान था कामदेव के पूजन का. इसका एक चित्र भवभूति के मालती-माधव प्रकरण में मिलता है. इसका केन्द्र होता था --मदनोद्यान, जो मुख्यरूप से इसी उत्सव के लिए तैयार किया जाता था. यहां कामदेव का मंदिर होता था. नगर के स्त्री-पुरुष इकट्ठे होकर यहां कन्दर्प (कामदेव ) की पूजा और आपस में मनोविनोद करते थे. शिल्परत्न और विष्णुधर्मोत्तर पुराण आदि ग्रंथों में कामदेव की प्रतिमा बनाने की विधियां भी बतायी गयी हैं. कामदेव के बायीं ओर पत्नी रति, और दाहिनी ओर दूसरी पत्नी प्रीति की प्रतिमा बनायी जाती थी. शास्त्रों में काम के बाण और धनुष फूलों के बताए गये हैं. अरविन्द, अशोक, आम, नवमल्लिका और नीलोत्पल--ये उसके पांच बाण हैं. इन्हें क्रमशः उन्मादन, तापन, शोषण, स्तंभन और सम्मोहन भी कहा गया है.

                     हम भारतवासियों के लिए, कृष्ण को याद किए बिना, न तो वसन्त का कोई अर्थ है और न ही होली का. होली का सर्वाधिक मनभावन चित्र , कृष्ण-कथा में ही मिलता है. कृष्ण के प्रेम में आसक्त गोपियां हर क्षण कृष्ण को अपने पास लाने की जुगत में रहतीं . होली का उत्सव उन्हें यह अवसर देता है. गोपियां कृष्ण का प्रेम चाहती हैं. राधा जलती-भुनती रहती हैं......" भरि देहु गगरिया हमारी, कहे ब्रजनारी ...."---कृष्ण कहते हैं कि पहले पूरा खाली करो ! प्रेम की ऐसी ही गति-मति है.....प्रेम पाना है तो गगरिया पूरी खाली करके जाना पड़ेगा........प्रेम मनसिज है..प्रेम सृजन है..प्रेम उद्दाम है..प्रेम काम है, और काम धर्म के अविरुद्ध है !!