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Monday 20 August 2012

हमारा चाँद दिख जाये, हमारी ईद हो जाये !























ईद आने को होती है तो मुझे ग़ालिब याद आने लगते हैं--

हमें क्या वास्ता ग़ालिब, ज़माने भर की ईदों से ।
हमारा चाँद दिख  जाये, हमारी  ईद  हो  जाये ।। 


बड़ी खूबसूरती से शायर ने ईद की मिठास को मुहब्बत की दीवानगी से जोड़ दिया है. दरअसल ईद के साथ चाँद का जुड़ा होना, इस त्यौहार को एक कॉस्मिक विस्तार देता है. दुनिया भर की तमाम मान्यताओं में चाँद प्रेम और सकारात्मक ऊर्जा का प्रतीक रहा है. प्रेमियों के लिए वस्ल और फ़िराक यानी मिलन और विरह, दोनों ही दशाओं में चाँद की उपस्थिति भावोद्रेक का माध्यम बन जाती है. चाँद की रोशनी और शीतलता कल्याणकारी मानी जाती है. यद्यपि ईद के लिए चाँद दिखने का अर्थ एक महीने के खत्म होने और नये महीने की शुरुआत से है लेकिन चाँद के वृहत्तर प्रतीकार्थों को ज़हन में रखने से यह त्योहार सार्वभौमिक और धर्मनिरपेक्ष अर्थ ग्रहण कर लेता है.

लेकिन ईद का मतलब होता है--खुशी, हर्ष, उल्लास. ...और फितरा, एक तरह के दान को कहते हैं. यानी ईद-उल-फितर का का अर्थ हुआ--दान से मिलने वाली खुशी. अरबी कैलेण्डर का नौवां महीना रमजान का होता है. और नौवें महीने की समाप्ति के बाद दसवां महीना शवाल का आता है. इसी माह-ए-शवाल के पहले दिन ईद मनाई जाती है. 

दरअसल ईद, उन लोगों के लिए एक ईनाम है जो एक महीने तक बगैर अन्न-जल के अल्लाह की इबादत में लगे रहते हैं. यह अनन्य आस्था का पुरस्कार है. यह इन्सान के पौरुष, ईमानदारी और समर्पण का पुरस्कार है. इस एक महीने की इबादत भी कुछ अलग और ज़रा कठिन होती है. अपनी सुबह की खूबसूरत नींद को छोड़कर सहरी खाना और रात की नमाज़ तरावी पठ़ना. कुरआन का यथासंभव अतिरिक्त पाठ और आख़ीर के दिनों में शब-ए-क़दर की खास नमाज़........इतनी कठिन इबादत के बाद जो खुशी मनाने का दिन मिलता है वही है---ईद.
 
साफ ज़ाहिर है कि ईद के त्यौहार के साथ दो तरह के भाव जुड़े होते हैं. पहला, जीवन में संघर्ष और तकलीफ उठाने की महत्ता स्थापित करना और दूसरा, दीन-हीनों के प्रति अल्लाह के नुमाइंदे के बतौर दयाभाव रखना. अपने जीवन में अगर तकलीफें न हों तो हमें दूसरे की तकलीफ उतनी गहरी नहीं लगती. पराई पीर को वही बेहतर जान सकता है जिसके पैर में कभी बिबाई फटी हो. शायद इसीलिए इस्लाम एक महीने का कठिन रोज़ा रखने का प्रावधान करता है.

ईद-उल-फितर  को मीठी ईद भी कहते है. इस त्यौहार में मीठी चीज़ें खाने और खिलाने का रिवाज़ है. मांसाहारी भोजन का ज़िक्र नहीं है. साथ ही कुछ और भी शर्तें है. मसलन, इस त्यौहार को मनाने के पहले फितरा और ज़कात निकालना ज़रूरी होता है. हज़रत मोहम्मद साहेब (मुसलमानों के पैगम्बर ) ने साफ तौर पर  कहा है कि जो कोई फितरा (दान ) नहीं निकालेगा, वह ईद की नमाज़ पढ़ने ईदगाह नहीं आये.

फितरा और ज़कात दो अलग चीज़ें हैं. फितरा, अनाथ, मासूम और गरीबों के लिए होती है ताकि वो भी अपनी खुशियों का उत्सव मना सकें. फितरे और ज़कात की अदायगी के बगैर रमज़ान अधूरा माना जाता है. ये सरकार की ओर से लगाये जाने वाले कर नहीं हैं. इन्हें अपने निज़ी पैसों से अदा किया जाता है. इस्लाम में यह आदेश है कि सबसे पहले अपने पड़ोस में देखो कि कौन ज़रूरतमंद है, फिर मोहल्ले में, फिर रिश्तेदारों में, फिर अपने शहर में, उसके बाद कोई और जडरूरतमंद हो तो उसकी ज़रूरत भी पूरा करो. फितरा, उन रोज़ेदारों का कर्तव्य है जो वयस्क हैं. हर वयस्क रोज़ेदार के लिए ईद की नमाज़ पढ़ने के पहले दान करना अनिवार्य है, अन्यथा उनका रोज़ा और ईद स्वीकार नहीं की जायेबीगी. 

जकात, आय का चालीसवाँ भाग, यानी एक रुपये में 2.5 रु. होता है. इसमें साल भर की अपनी कमाई का इतना हिस्सा दान करना होता है, वशर्तें दान देने वाला कर्ज़दार  न हो. इस्लाम में दान पर बहुत ज़ोर है. दान की राशि निर्धन, अपंग लोगों को देना ज़्यादा अच्छा माना गया है. सबसे पहले उन पड़ोसियों, रिश्तेदारों को दान देना जो ज़रूरतमंद हैं. ईदगाह अथवा नमाज़ के लिए जाने और लौटने के लिए मुख़्तलिफ रास्तो का इस्तेमाल किया जाता है ताकि हम यह देख सकें कि कौन ऐसा है जो इस खुशी में शरीक नहीं हो पा रहा है. उसकी मदद करने से ईद की नमाज़ का फल बढ़ जाता है. 

हमारे देश में होली और ईद , ये दो ऐसे त्यौहार हैं जिनमें धार्मिक आग्रह कम हैं और प्रेम, सौहार्द्र का भाव अधिक. दोनों ही समुदाय के लोग इन त्यौहारों में शरीक होते हैं क्योकि इस दिन उन्हें अल्लाह या ईश्वर के करीब नहीं, मनुष्य के करीब जाना होता है. 

Wednesday 15 August 2012

पुरानी आज़ादी के नये दुख !


पहले महात्मा गांधी का यह कथन देखिए—स्वाभिमानी व्यक्ति के लिए सोने की ज़ंजीरें भी उतनी ही क्लेशकारी होती हैं जितनी कि लोहे की ज़ंजीरें. दंश ज़ंजीर मे निहित है, उस धातु में नहीं जिससे ज़ंजीर बनाई जाती है......मेरी दृष्टि में सोने की ज़ंजीरें लोहे की ज़ंजीरों की तुलना में कहीं ज़्यादा बुरी हैं, क्योंकि लोहे की ज़ंजीर की क्लेशकारी प्रकृति मनुष्य आसानी से समझ पाता है, जबकि सोने की ज़ंजीर का दुख प्रायः भूल जाता है. इसलिए अगर भारत को ज़जीरों में बंधे रहना है तो मैं चाहूँगा कि ये सोने या किसी अन्य बहुमूल्य धातु की अपेक्षा लोहे की ही हो.
         
65 साल की आज़ादी को जवान तो नहीं कहा जा सकता. किसी भी देश की काया परिवर्तन में इतने साल पर्याप्त होते हैं. इसे हम जापान के उदाहरण से समझ सकते हैं. दूसरे विश्व-युद्ध के परमाणु हमले में तवाह हो चुके जापान ने लगभग 30-40 सालों में ही अपने देश को दुनिया का सिरमौर बना दिया, और वह भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया से गुजरकर. एक समय था जब जापान में प्रतिव्यक्ति आय, दुनिया में सबसे अधिक थी. इन सबके बीच जापान में आने वाले भूकम्पों और उनसे होने वाली तबाही को भुलाया नहीं जा सकता. जापान ने यह चमत्कार किसी विदेशी या दैवीय मदद से नहीं किया. यह जापानियों की दृढ़ इच्छाशक्ति, स्वाभिमान और अनुशासन का सुफल था.
        
दूसरी ओर भारत में हमने पैंसठ सालों में अलग तस्वीर देखी. गरीबी और बेरोजगारी के मोर्चे पर हम लगभग जहाँ के तहाँ हैं. सरकार भी मानती है कि 26 रुपये प्रतिदिन खर्च करने वाला गरीब नहीं है. स्पष्ट है कि सरकार जानती है कि वह अपने नागरिकों को कितना दे पा रही है. एक गैर सरकारी सर्वेक्षण के मुताबिक देश की 70 प्रतिशत आबादी की औसत कमायी 20 रुपये प्रतिदिन है. इस  बात पर यकीन करना किसी के लिए भी तब मुश्किल हो जाता है, जब वह मुकेश अंबानी के अरबों रुपयों के महल को देखता है. जब वो देखता है कि अफसरों और मंत्रियों के यहाँ छापे में टनों सोना निकल रहा है, और राजा, कलमाड़ी, सुखराम जैसों को चुराने के लिए अकूत रुपया इसी देश में है. विदेशों में जमा धन की तो बात ही मत कीजिए. हमारे देश के साहूकार, विदेशी कम्पनियों को धड़ाधड़ खरीद रहे हैं. अब ऐसे मोहक रंगमंच पर किस गरीब की हिम्मत है कि वह कहे कि मैं गरीब हूँ !!
                 
ऐसा नहीं कि देश आगे नहीं बढ़ा. औद्योगिक और आर्थिक क्षेत्र में विकास की ऐसी गति रही है पिछले 20 वर्षों में कि भारत के महाशक्ति बनने की कूटनीतिक घोषणाएँ भी होने लगी हैं. लेकिन आप भी देखते होंगे कि भारत ने विकास का शीर्षासन किया है. सरकार ने जड़ों को नहीं पत्तियों को पानी दिया है. नब्बे के दशक मेंजब यह मान लिया गया कि उदारीकरण के अलावा अब कोई और रास्ता नहीं बचा है देश को दिवालिएपन से बचाने का, तब जो भी नीतियां बनाई गयीं वो सब देश के पूँजीपतियों और विदेशी कंपनियों के हक में बनाई गयीं. उनके लिए लायसेंस प्रणाली को लचीला करना, ब्याज दरों में कमी करना, भूमि-अधिग्रहण को सरल करना और पर्यावरणीय दुष्प्रभाव की अनदेखी करना......साफ ज़ाहिर कर रहा था कि सरकार औद्योगिक घरानों के साथ. हमारी आँखों के सामने ही देशी और सार्वजनिक उद्योग मरते गये और सरकार देखती रही. खेती-बाड़ी और छोटे उद्योग-धंधे भगवान भरोसे दम तोड़ गये. देश का निम्न-मध्यवर्ग गरीबी रेखा से नीचे चला गया. औद्योगिक घरानों के मालिक दुनिया के कुबेर बनते गये.
        
सबसे दुखद पतन देश की राजनीति में हुआ. आज़ादी के आन्दोलन में जो पीढ़ी सक्रिय थी, उसके अवसान के बाद भारत की राजनीति अपराधियों और निकम्में लोगों की भी शरणस्थली बनती गई. किसी भी देश की राजनीतिक दृढ़ता, उस देश के नागरिकों के मनोबल का भी प्रतिनिधित्व करती है. अपराधियों के बढ़ते वर्चस्व और क्षेत्रवाद के उभार नें भारत के संघीय ढाँचे को भी कमज़ोर बनाया है. अलग-अलग राज्यों के केन्द्र के साथ और आपस में हो रहे टकरावों को गौर से देखिए, तो पता चलेगा कि इस माला को पिरोने वाला कितना कमज़ोर हो चुका है.
         
आज आज़ादी की वर्षगांठ है. इस मौके पर गांधी का यह कथन याद आ रहा है तो यह बेसबब नहीं है, पर इस पर बात थोड़ा आगे चलकर करूँगा...पहले मेरे ज़हन में वे दृश्य आ रहे हैं, जहां एक गली के स्कूल में बस्ती का एक लुच्चा और दिल्ली के लाल किले पर प्रधानमंत्री हमें आज़ादी का मतलब समझा रहे हैं. हम हाथ में एक रुपये की झंडियां लिए यह दिखाने की कोशिश में हैं कि हम एक आज़ाद देश के नागरिक हैं, और हमें आज़ादी की समझ भी है.
         
स्वतंत्रता दिवस  पर हर सरकारी-गैर सरकारी संस्थान में ध्वजारोहण और भाषण देने की परंपरा है. यह हमारा फ़र्ज़ भी है. इस मौके पर हर वर्ष यह याद किया जाता है कि आज़ादी कितने संघर्ष के बाद मिली है. अंग्रेजों के अत्याचार और भगत सिंह, आज़ाद, बिस्मिल वगैरह की कुर्बानी भी याद की जाती है. लता के गाये कालजयी गीत—ऐ मेरे वतन के लोगों...---को हर लाउडस्पीकर अपने ही अंदाज़ में सुबह से शाम तक बजाता है.
         
प्रायः विद्यालयों में आयोजित होने वाले समारोह ज़्यादा रोचक होते हैं. इन समारोहों में, विद्यालय-प्रमुख की यह मज़बूरी होती है कि वह उस इलाके के कुछ सर्वाधिक बदनाम लोगों को बतौर अतिथि आमंत्रित करे. विद्यालय  के निरीह शिक्षक उनका माल्यार्पण करें और प्रसाद की प्रतीक्षा में बैठे छात्र, इन महानुभावों के महान उद्गारों पर ताली बजाएँ—जिसकी उन्हें बराबर ताकीद की जाती है. वक्तागण एक मंजे हुए देशभक्त की मुद्रा मे झंडे को सलाम करते हैं, गांधी की जय बोलते हैं, और सीधे विद्यालय के शिक्षकों को उनके कर्तव्य याद दिलाते हुए यह भी चेता देते हैं कि उनके जैसे देशभक्तों के रहते किसी भी शिक्षक को इस देश के भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं करने दिया जायेगा.
         
आज प्रधानमंत्री भी लाल किले पर चढ़े. वो बड़े आदमी हैं, इसलिए उन्हें बड़ा देशभक्त माना जाना चाहिए. उनकी चिन्ता को बड़ी चिन्ता मानना चाहिए. प्रधानमंत्री हर साल चिंतित होते हैं. जब वो चिन्तित होते हैं तो देश की जनता का आह्वान करते हैं. आह्वान करना प्रधानमंत्री का विशिष्ट धर्म होता है, तो कतरा कर निकल जाना उनका अद्भुत कौतुक. हो सकता है. प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि हमारे पड़ोसी, हमारे ऊपर बुरी नज़र लगाये हुए हैं...पर इस देश की जनता इतनी बहादुर है कि वह उनके मंसूबों पर पानी फेर देगी. इस देश की जनता अपने घर के दुश्मनों का तो कुछ कर नहीं पाती, बाहर वालों से कैसे निपटेगी, यह प्रधानमंत्री ही जानते होंगे. सेना के प्रमुख बार-बार प्रस्ताव भेजते हैं कि सेना के लिए बुनियादी ढाँचा तैयार करने की ज़रूरत है. चीन की सीमा पर जहां चीन अपनी सेनाओं को महज़ दो-तीन घंटे में भेज सकता है, वहां हमारे सैनिकों को पहुंचने में 15 दिन लगते हैं. सेना के प्रस्ताव रक्षा-मंत्रालय में दबे रहते हैं, उन्हे मंजूरी नही मिलती. बांग्लादेश और नेपाल परोक्ष रूप से पाक-चीन की मदद करते हैं. ऐसे में प्रधानमंत्री का आशावाद काबिले तारीफ है.
         
आज़ादी के पर्व पर यह भी याद दिलाया गया कि भारत कभी सोने की चिड़िया  था, जिसे अंग्रेजों ने कैद कर लिया था. फिर उसे इंगलैण्ड ले गये....इमानदारी तो इतनी थी कि घरों में लोग ताले नहीं लगाते थे. आज सरकार की नीतियों और उद्यमशीलता के चलते यह देश फिर से सोने की चिड़िया में बदलने लगा हैं. लगभग 75 प्रतिशत बदल चुका है. 2025 तक यह चिड़िया सौ-फीसदी सोने की हो जायेगी. यह उत्साहवर्धक विचार, एक ही साथ सत्य भी है और भ्रामक भी. इसे आप तर्कशास्त्र में अपवाद की तरह भी देख सकते हैं. जिस काल में भारत को सोने की चिड़िया होना बताया जाता है, तब भी सम्पत्ति के सारे भंडार शासकों और व्यापारियों के ही पास थे.उसी की चकाचौंध विदेशियों को खींच लाती थी. आम जनता के घर में कुछ था ही नहीं तो ताले किसके लिए लगाते ? तत्कालीन इतिहास के जितने स्रोत हैं, वे शासकों के नियंत्रण में थे. राजा खुद अपनी निगरानी में इतिहास लिखवाते और स्तम्भ गड़वाते थे. इसलिए उनके विवरण पर भरोसा करना ठीक नहीं. कोई मीडिया तो तब था नहीं. तो यह मानने में कोई हर्ज़ नहीं कि सोने की चिड़िया का चित्र राजा के भाड़े के चित्रकारों ने बनाया था.
          
अब गांधी जी के उस कथन पर लौटते हैं जिसका जिक्र शुरुआत में किया था. यह कथन उन दिनों का है, जब भारत की आज़ादी लगभग तय हो गयी थी, और शीर्ष स्तर पर आज़ादी का खून चूसने की तैयारियां चल रही थीं. गांधीजी की केन्द्रीय भूमिका अब मात्र एक आवरण थी. संभवतः उन्हें यह आभास था कि अँग्रेजों से मुक्त होकर यह देश किन लोगों के हाथ में जाने वाला है. वो बार-बार कह रहे थे कि स्वराज का अर्थ है कि देश के कमज़ोर से कमज़ोर व्यक्ति को भी उन्नति का अवसर मिले...पर तब तक उनकी बातों को सुनना भावी शासकों ने कम कर दिया था. जब उन्होने यह कहा कि सोने की ज़ंजीर में बंधने से बेहतर है कि हम लोहे की ज़ंजीर में ही जकड़े रहें---तो यह उनकी दूरदृष्टि और गहन हताशा को दिखाता है.
          



आज 65 साल बाद इस देश के लोग ऐसे पूंजीपतियों के गुलाम हैं जिनकी कोई नागरिकता नहीं है. ये विश्व-नागरिक कहलाते हैं. 15 अगस्त को स्वतंत्रता का जश्न मनाते हुए हमारे पास कोई स्वप्न नहीं हैं. हम कुछ घिसे-पिटे जुमलों और बीस रुपए प्रतिदिन की औसत कमाई में अमर हैं.

Friday 10 August 2012

संभवामि युगे युगे !


ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास न होने के बाद भी कृष्ण मेरे प्रिय पात्र रहे हैं. कई बार जब किसी प्रश्न का जवाब ढूढ़ना मेरी सामर्थ्य के बाहर हो जाता है तो मैं कृष्ण की शरण में जाता हूँ. ज़्यादातर ऐसा हुआ है कि बियाबान में कोई राह चमक गई है. कृष्ण से भी ज़्यादा मुझे उन लोगों पर श्रद्धा है जिन्होंने कृष्ण जैसा पात्र रचा है. मुझे नहीं लगता कि कृष्ण किसी एक आदमी की रचना हैं. पौराणिक ऋषियों से लेकर, व्यास, सूर, रसखान और इस देश की जन-जातियों तक ने कृष्ण को गढ़ा है, और कितना अद्भुत गढ़ा है ! कृष्ण के व्यक्तित्व के इतने आयाम हैं कि उसमें हर किसी के लिए कुछ न कुछ है.
   
जीवन से थक चुके लोगों के लिए वहाँ वैराग्य है, लड़ने के लिए निकले व्यक्ति के लिए उत्साह है, गृहस्ती के नुस्खे हैं तो प्रेम और विवाह करने वालों के लिए अनुपम दृष्टान्त....सुभद्रा और अर्जुन की प्रेम कहानी बीच में ही खत्म हो जाती अगर भैया कृष्ण उनके भागने का प्रबन्ध न करते. प्रेम की अव्यक्त और विडम्बनात्मक स्थितियों में घिरे लोगों के लिए द्रौपदी-कृष्ण का सम्बन्ध ग्रंथियों को खोलने वाला है.


भारतीय मान्यताओं में कृष्ण अकेले ऐसे देवता हैं जो मनुष्य की तरह जीते-मरते हुए दिखते हैं. लोगों को उनमें सखा-बन्धु-गुरु, सब दिखते हैं. कोई भी व्यक्ति जितनी सहजता से कृष्ण के साथ अपना तादात्म्य स्थापित कर लेता है उतना किसी और देवता से नहीं कर पाता. कृष्ण अकेले ऐसे देवता हैं जिनकी उत्पत्ति भय से नहीं, बल्कि प्रेम और साख्य-भाव से हुई है. कृष्ण प्रकट नहीं होते, पैदा होते हैं. उनके जन्म के समय जो स्थितियाँ थीं, वह विशुद्ध रूप से मानवीय धरातल पर थीं. आप आज की उन प्रसूताओं का ध्यान करिए जिनके पास प्रसव की सुरक्षित परिस्थितियाँ ही नहीं हैं.
     
पैदा होने के साथ ही माता-पिता से वियोग के बाद जो बालक नन्द और यशोदा के संरक्षण में बड़ा हुआ, उसके पास जीवन को समझने और जीने की कुछ विशिष्ट पद्धतियाँ तो होनी ही थीं. मथुरा में गोपियों का जो साथ मिला, उसने कृष्ण को जीवन के अधिकतम विस्तार तक पहुँचाया. कृष्ण का जीवन उत्सव का संदेश बन गया. कृष्ण की लीलाएँ मनुष्य की सहज और संभाव्य आकांक्षाएँ बन गयीं.
     
कृष्ण और अर्जुन की मित्रता भी बड़ी गहरी है. दरअसल, मैत्री-भाव को जो ऊँचाई कृष्ण ने दी है, वैसा कोई भी दूसरा उदाहरण दुर्लभ है. बाल्यकाल में गोकुल के ग्वालों के साथ उनके मैत्री-भाव का उत्कर्ष तब दिखता है जब वो मथुरा के राजा हो गये. सुदामा के लिए उनके हृदय में जो भाव उमड़े थे, वह मित्रता का शिखर तो है ही, साथ ही उसमें सामाजिक बराबरी, करुणा, और शासक वर्ग के लिए आदर्श भी अन्तर्निहित हैं.
     
कृष्ण-अर्जुन की मित्रता, सुदामा-कृष्ण की मित्रता से अलग है. अर्जुन के साथ कृष्ण की मैत्री ऐसी है जो अर्जुन के व्यक्तित्व का परिष्कार करती है. अर्जुन के साथ कृष्ण सारथी बने. यह निर्णय कृष्ण ने बहुत सोच समझ कर किया था. लम्बे समय की मित्रता के बाद कृष्ण, अर्जुन के व्यक्तित्व की कमज़ोरियों को जानते थे. बेशक अर्जुन सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर थे, लेकिन जीवन और संसार की उनकी समझ गहरी नहीं थी. भयभीत होने का उनका स्वभाव था. एकलव्य को देख कर भी डर गये थे अर्जुन. ऐसे में कृष्ण यह समझ गये थे कि महाभारत जैसे निर्णायक युद्ध में अर्जुन को रास्ता दिखाने वाला कोई साथ में चाहिए. कृष्ण नहीं चाहते थे कि अर्जुन का पराक्रम उनकी मनोदुर्बलताओं के कारण व्यर्थ चला जायें. इसीलिए कृष्ण ने अर्जुन का रथ हाँकने का विकल्प चुना. वो सिर्फ अर्जुन के पास ही नही रहना चाहते थे, बल्कि वो चाहते थे कि अर्जुन पूरी तरह से उन पर निर्भर रहें और उसी रास्ते पर चलें जिसे कृष्ण बता रहे थे.
     
महाभारत में कृष्ण अर्जुन के सखा भी हैं और गुरु भी. एक सच्चा मित्र एक सच्चा गुरु भी होता है किन्हीं बिन्दुओं पर. ज्ञान की गति भी अजब होती है. ज्ञान वहीं जा सकता है जहाँ अहंकार न हो. ज्ञान वहीं टिक सकता है जहाँ अहंकार न आये. यह सोचने की बात है कि श्रीकृष्ण ने गीता का दिव्य ज्ञान देने के लिए पाचों पाण्डवों में अर्जुन को ही क्यों चुना ? युधिष्ठिर तो बड़े ज्ञानी थे. तो ज्ञान और कर्म की ये गूढ़ बातें उन्हें बताई जा सकती थीं. युधिष्ठिर की मेधा प्रखर थी. शिक्षक तो मेधावी छात्र ही ढूढ़ते हैं पढ़ाने के लिए. छात्र जब कोई बड़ी परीक्षा उत्तीर्ण कर लेता है तो शिक्षक की कीर्ति भी बढ़ती है !
     
फिर कृष्ण ने गीता का ज्ञान देने के लिए अपेक्षाकृत कमज़ोर छात्र अर्जुन को क्यों चुना ?  कारण है. पाण्डवों में अर्जुन के अलावा चारों भाइयों से कृष्ण के सम्बंध मित्रता के नहीं थे. बुआ के पुत्र होने के नाते युधिष्ठिर, भीम, नकुल, सहदेव उनके लिए सम्मानीय और प्रिय थे, लेकिन अर्जुन के साथ बात दूसरी थी. अर्जुन, कृष्ण के सखा थे. दोनों के बीच कोई अहंकार नहीं था. अर्जुन, कृष्ण के सामने अपना मन खोल कर रख सकते थे. अर्जुन ही ऐसा कर सकते थे कि कुरुक्षेत्र में दोनो ओर की विशाल सेनाओं के बीच कृष्ण के सामने घुटनों के बल बैठकर कहें कि मुझे कुछ नहीं सूझ रहा है मित्र, मुझे राह दिखाओ. कल्पना कीजिए, कि ऐसी भीड़ के सामने जब आपकी छवि एक परम प्रतापी की हो, हम अपने पिता के सामने भी हाथ जोड़ने में संकोच कर जायेंगे. अर्जुन तो घुटनों के बल बैठ गये थे मित्र के सामने.
        
तो, इसीलिए कृष्ण ने अर्जुन को चुना दिव्य ज्ञान देने के लिए. क्योंकि अर्जुन ही खाली थे उसे लेने के लिए. और यह खाली जगह बनी थी मैत्री-भाव से. अहंकार का लोप कृष्ण की मित्रता से हुआ था. और फिर अर्जुन पात्र हो गये थे. युधिष्ठिर तो पहले से ही भरे हुए थे. पूरे महाभारत में, अर्जुन जब-जब हताश और दुर्बल हुए, कृष्ण ने उन्हें उबारा. कृष्ण ने अर्जुन को युद्ध के लिए तैयार करके, देश की राजव्यवस्था में एक ऐतिहासिक और अभूतपूर्व परिवर्तन का उन्हें वाहक बनाया.
     
कृष्ण, जीवन को उसके पूरे आयतन में देखने का आग्रह करते हैं. एक साधारण मनुष्य की तरह लीला करते हुए वो चमत्कारों का बहुत कम सहारा लेते हैं. अगर कोई चमत्कार किया भी तो उसकी व्याख्या लौकिक धरातल पर करने की कोशिश करते हैं. जब ऐसा करना मुश्किल हो जाता है तो योगेश्वर रूप बना लेते हैं. अपने किसी भी कौतुक को नकारते हुए यह बताने लगते हैं कि ये शक्तियाँ सबके भीतर हैं, जिन्हें जागृत किया जा सकता है.
     
कृष्ण का जन्म कारागृह में हुआ. अँधेरे में हुआ. दुनिया में हर जन्म अँधेरे में ही होता है. बीज से अंकुर को फूटते कभी देखा है किसी ने ? हमारे भीतर भी जो चीज़ें पैदा होती हैं, वह सब गहरे अंधकार के भाव में ही होती हैं.एक कविता, एक चित्र या एक राग का जन्म मन की जिन गहराइयों में होता है, वहाँ गहन अंधकार ही है. यह अचेतन का अंधकार होता है.
    
कृष्ण एक ऐसा जीवन हैं जिनके सामने मौत बार-बार और अनेक रूपों में आती है, लेकिन हर बार हार कर लौट जाती है. कभी पूतना बन कर तो कभी कालिया नाग की तरह. कृष्ण के जन्म के साथ ही उनके मारे जाने का डर है. मृत्यु की आवश्यक शर्त है जन्म. जन्म के बाद का एक-एक क्षण मृत्यु की यात्रा है. यही जीवन है. मृत्यु कृष्ण को रोज़ घेरती है. और कृष्ण जीवन की तरह रोज़ जीतते चले जाते हैं. कृष्ण का जीवन मृत्यु को पराजित किए जाने का आख्यान बन जाता है. और इसी बिन्दु पर हमारा जीवन, कृष्ण का जीवन बन जाता है. यही सिरा है जहाँ से हमारा तादात्म्य कृष्ण के साथ शुरू हो जाता है. कृष्ण जैसा व्यक्तित्व जब हमें मिल गया तो उस व्यक्तित्व में हमने अपने आपको खोजना और पहचानना शुरू कर दिया.
     
हमारी इस आत्म-खोज को कृष्ण थोड़ा सरल बना देते हैं, जब वो कहते हैं—सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज . यह एकाग्र होने की बात है. जब तक हम दस रास्तों पर नज़र रखेंगे, तो जहाँ हैं वहीं खड़े रह जायेंगे. जड़ हो जायेंगे. गति जीवन है. जड़ता मृत्यु है. कृष्ण इस जड़ता को खत्म करने की बात करते हैं. सभी धर्मों को छोड़कर तू मुझ एक की शरण में आ....सब को छोड़कर एक पर एकाग्र हो जा...यहाँ कृष्ण व्यक्तिवाची नहीं रहते, भाववाची हो जाते हैं—यह द्वैत से अद्वैत की ओर आमंत्रण है.
     
यह किसी और की शरण में जाने की भी बात नहीं है. यह आत्मशरण में होने की बात है. कृष्ण कहते हैं कि अपने स्वभाव में स्थिर होना है. सारी चेतना और शक्तियों का केन्द्र यही स्व है. इसी को ठीक-ठीक पहचान लेना है.
    
बहुत आश्चर्य होता है कि जो कृष्ण माखन चुराता है, गोपियों के वस्त्र लेकर छुप जाता है, वह गीता का गंभीर योगी कैसे हो जाता है ! यही कृष्ण के व्यक्तित्व की निजता है. यही वह विशेषता है जिससे कृष्ण हमारे इतने नज़दीक लगते हैं. विरोधों का समागम हैं कृष्ण. हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी---निदा फाज़ली की इस पंक्ति को कृष्ण के जीवन से भी समझा जा सकता है. हमारा सारा जीवन ही विरोधों पर खड़ा है. लेकिन इन विरोधों में एक लय है. एक प्रवाह है. सुख-दुख, बचपन-बुढ़ापा, रोशनी-अँधेरा, जन्म-मृत्यु----ये सब विरोधी प्रत्यय हैं, लेकिन एक लय में बंधे होते हैं. इसी लय में जीवन संभव होता है.
     
गोपियों के साथ कृष्ण की काम-लीला से बहुत से शुद्धतावादियों को आपत्ति रही है. कृष्ण के जीवन में काम की सहज स्वीकृति है. मनुष्य के जीवन में ही नहीं, सारी सृष्टि के सृजन में काम-ऊर्जा केन्द्रीय तत्व है. फ्रायड इसे लिबिडोकहते है. पुराण कहते हैं कि ब्रह्मा ने काम से पीड़ित होकर ही जगत् को बनाया है. जीवन के हर उद्यम, हर रचना,हर अभिव्यक्ति के पीछे काम की ऊर्जा होती है. कृष्ण के जीवन में काम का कहीं निषेध नही है. कहीं कोई दमन नहीं है. काम एक निर्बाध प्रवाह है. काम का दमन हमें रोगी बनाता है. पोखर के पानी और नदी के पानी में फर्क देखा होगा आपने ! पोखर में पानी को बांध दिया गया है. नदी में प्रवाह है, उन्मुक्तता है. पोखर का पानी रोग और बीमारियाँ देता है, नदी का पानी जीवनदायी है.
     
कृष्ण जीवन को एक उत्सव की तरह देखते हैं. वे खुद को जीवन की तरफ मुक्त करते हैं. बौद्धिकों ने संसार और जीवन को बहुत जटिल कर दिया है. कृष्ण सरलता का संदेश देते हैं. कृष्ण हँसते हैं,गाते हैं,नाचते हैं. रास करते हैं. रास उनके लिए ,उस केन्द्रीय काम-ऊर्जा का विखंडन है. कृष्ण एक-एक क्षण को उसकी अधिकतम लब्धता में जी लेने के हिमायती हैं. कृष्ण हमारी आदिम और मौलिक आकांक्षाओं के प्रतिबिम्ब हैं.

Monday 6 August 2012

एक दोस्त के उदास होने पर

एक दोस्त क्यूँ उदास है
मैं नहीं जानता था
पर मैं उदासी को जानता था ।

एक दोस्त सब दोस्तों जैसा नहीं था
पर उसकी उदासी
सब उदासियों जैसी थी ।

एक दोस्त के बगल में
जब खड़ा हो गया मैं
तो वह पिघलने लगा,
वह अपने पिघलने को नहीं जानता था
पर मेरा बगल में खड़ा होना
उसे अच्छा लग रहा था ।

मेरे लिए
उसके उदास होने का मतलब
पूरी दुनिया उदास है से था.
कि सबकी दुनिया
मेरी दुनिया नहीं थी,
कि वह दोस्त
सबका दोस्त नहीं था.
जैसे मेरी दुनिया
सबकी दुनिया नहीं थी ।

मेरा दोस्त उदास था का मतलब
सबके दोस्त उदास थे नहीं था,


और सवाल यह था भी नहीं
कि उदास कौन है,
लेकिन यह उदासी
दुनिया पर एक सवाल थी ।

Thursday 2 August 2012

अपनी मानस बहन अर्चना पंत के लिए


सपने में रोते हुए
सचमुच के आँसू निकल आते हैं.
सपने में गूँजती है
सचमुच की हँसी ।

कुछ लोग
सपने में ही बिछड़ जाते हैं
तो कुछ लोगों का मिलना
किसी सपने जैसा ही होता है ।

वो नींद
कितनी पवित्र होती होगी
और कैसी अदम्य छटपटाहट से भरी,
जिसके सपने सच हो जाते हैं ।

ऐसी ही किसी नींद के
एक अप्रत्याशित स्वप्न में
मुझे तुम मिलीं
और मेरा पूरब
एक सूर्योदय की लालिमा से भर गया ।