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Wednesday 28 August 2013

कृष्ण के कपट और महाभारत की दुविधाएँ !


ईश्वरवादियों के सामने एक सवाल हमेशा खड़ा रहता है, कि यदि ईश्वर है तो फिर संसार में इतनी बुराइयाँ क्यों हैं ? अगर इस सवाल का जवाब देने की कोशिश किसी ने की तो वह और फँसता चला जाता है. मसलन, या तो ईश्वर बुराई का नाश करना चाहता है, और वह कर नहीं सकता. या फिर वह कर तो सकता है पर करना नहीं चाहता....यदि वह चाहता है लेकिन कर नहीं सकता तो वह नपुंसक है. यदि वह कर सकता है पर चाहता नहीं, तो फिर वह दुष्ट है. यानी ईश्वर अगर अच्छा है, तो उसका संसार इतना बुरा क्यों है ?
           
ऐसा ही सवाल करके कृष्ण को परेशान कर दिया था महाभारत के एक एकांतवासी ऋषि उत्तंक नें. कृष्ण की मुलाकत उत्तंक से राजस्थान के किसी निर्जन क्षेत्र में हुई थी. उन्हें जब कुरुक्षेत्र के जनसंहार का पता चला तो नाराज़ होकर कृष्ण से पूछा कि आपने इस नरसंहार को रोका क्यों नहीं ? कृष्ण ने जब यह कहा कि मैं असमर्थ था, तो ऋषि चकित हुए. एक ईश्वर असहाय होने का हवाला दे रहा है !
            
अब कृष्ण यह कैसे बताते कि इस महाभारत के असली नियंता तो वही हैं. पृथ्वी को क्षत्रिय और यादव वंश से मुक्त कर देने की उनकी वृहद योजना का एक हिस्सा था महाभारत का नरसंहार. अपने लक्ष्य को पाने के लिए कृष्ण कदम-कदम पर छल-कपट का सहारा लेते हैं. यद्यपि कृष्ण महाभारत में घोषणा करते हैं कि जब जब धर्म की हानि होती है तो मैं धर्म की रक्षा के लिए प्रकट होता हूँ. लेकिन पूरे युद्ध के दौरान किए गए अपने छल-कपट से कृष्ण हम सबके सामने एक नैतिक दुविधा पैदा कर देते हैं. अच्छाईऔर बुराई के बीच की विभाजक रेखा को खुद कृष्ण ने धुँधला कर दिया. छल कृष्ण के चरित्र का अभिन्न हिस्सा है, और उनकी चालबाजियाँ पारंपरिक नैतिकता को एक खुली चुनौती हैं, जो कर्म के समग्र अर्थ के संदर्भ में बड़ी महत्वपूर्ण हैं.
       
कृष्ण के दो रूप जनमानस में लोकप्रिय हैं. एक वह जो भागवत पुराण और सूरदास आदि कवियों ने बनाया है. जिसमें कृष्ण की सम्मोहक लीलाएँ हैं. राधा-कृष्ण का प्रेम है. कृष्ण-सुदामा की मैत्री है. दूसरा वह रूप जो महाभारत का संपादक-मंडल बनाता है. इस रूप में कृष्ण का विराट स्वरूप है, जो अर्जुन को दिखाते हैं कुरुक्षेत्र में. कृष्ण के छल-कपट और रण-कौशल हैं, जिसके दम पर वो बडे-बड़े महारथियों को मरवा देते हैं. इन दोनो ही रूपों में एक चीज उभयनिष्ठ है—वह है उनका छली स्वभाव. माखन चुराना और फिर सफाई में कहना कि चीटियाँ निकाल रहे थे. सरोवर में नहाती हुई गोपियों के वस्त्र चुराकर उनके दैहिक सौन्दर्य को देखना. अपने ग्वाल साथियों को डाँट लगवाना—उनकी कपट-प्रियता की आरंभिक निशानियां हैं.
       
महाभारत की कथा में कृष्ण का प्रवेश होता है द्रौपदी के स्वयंवर से. और यहीं से उनके छल-कपट का सिलसिला भी शुरू हो जाता है. आप जानते ही हैं कि द्रुपद ने मछली की आँख भेदने की शर्त रखी थी द्रौपदी के वरण के लिए. कृष्ण दूसरे महारथियों को पराजित करवा देते हैं विभ्रम पैदा करके. क्योंकि अपनी बुआ के पूत्र अर्जुन को जिताना था. द्रौपदी अर्जुन को मिल गई. यहीं से कृष्ण पाण्डवों के अभिन्न मित्र हो गए. बाद में छल से ही अपनी बहन सुभद्रा को अर्जुन के साथ भगवा दिया और विवाह करा दिया. इसके बाद तो पूरी महाभारत, जिसे अच्छाईऔर बुराई के बीच युद्ध कहा गया, कृष्ण की चालबाजियों की कहानी है.
       
महाभारत के युद्ध में एक-एक करके कौरव सेना के सारे महारथी मारे गए. पूरे युद्ध में युद्ध-संहिता का घनघोर उल्लंघन हुआ. अच्छाई के प्रतीक पाण्डवों ने भीष्म, द्रोण, कर्ण, दुर्योधन जैसे वीरों को उस तरह से मारा जो युद्ध-संहिता के अनुसार अनीतिपूर्ण था. इसके लिए उन्हें कृष्ण ने उकसाया, वरना अर्जुन समेत पांचों पाण्डव ऐसा करने से बार-बार हिचक रहे थे. युद्ध शुरू होने से पहले पाण्डवों की माता कुन्ती ने भी कहा था--- हे शत्रुहर्ता ! तुम्हारे विचार से, जो कुछ उनके (पाण्डवों) लिए उत्तम हो, तुम करो. पर ध्यान रहे, धर्म की कोई हानि नहीं होनी चाहिए और कोई छल-कपट भी न हो.”….लेकिन कृष्ण धर्म की परवाह किए बिना, रणनीतिके नाम पर इसका उल्टा ही करने की सलाह देते हैं----हे पाण्डु-पुत्रों, नीति को परे रख, येन-केन-प्रकारेण विजय प्राप्त करो.
               
कर्ण की मृत्यु के बाद युद्ध लगभग समाप्त हो चुका था. हताश दुर्योधन रणक्षेत्र से निकल पास की ही एक झील पर चला जाता है. वहीं पर वह शान्तिपूर्ण जीवन बिताने का संकल्प लेता है. माया के प्रयोग से झील के पानी को ठोस बना देता है और उसके अन्दर प्रवेश कर जाता है. लेकिन पाण्डव उसे ढूढ़ लेते हैं. भीम उसे गदायुद्ध के लिए ललकारते हैं. दोनों में युद्ध होता है. दुर्योधन को गान्धारी क वरदान था कि उसकी मृत्यु तभी हो सकती है, जब कोई उसकी जंघा पर प्रहार करेगा. गदायुद्ध की नियमावली में नाभि से नीचे प्रहार करना वर्जित है. युद्ध में दुर्योधन भीम पर भारी पड़ता जा रहा था. तब कृष्ण ने अनीति का सहारा लिया. उन्होने अर्जुन से भीम को इशारा करवाया कि दुर्योधन की जंघा पर प्रहार करो. भीम ने वैसा ही किया.
        
युद्ध के अठारवें दिन रणक्षेत्र में मरणासन्न पड़ा हुआ दुर्योधन कृष्ण को इस पूरे युद्ध में, उनके द्वारा किए गए सारे छल गिनवाता है----- हे कंस के दास के उत्तराधिकारी ! इस तरह अनीतिपूर्ण ढंग से मुझे मार गिराने में क्या तुम्हें किंचितमात्र भी शर्म नहीं आई ? तुम्हें क्या ज़रा भी श्म नहीं कि तुमने उन सारे राजाओं को छलपूर्वक मरवा डाला जो युद्ध में नीतिपूर्वक व बड़ी वीरता से लड़ रहे थे. शिखण्डी को सामने रख कर तुमने हमारे पितामह का वध करवाया. अश्वत्थामा नामक हाथी के मारे जाने पर भी तुमने दुष्टतापूर्ण व्यवहार किया. फिर जब शोकाकुल हो हमारे गुरु द्रोण ने अपना धनुष भूमि पर रख दिया , तब भी तुमने उस नीच धृष्टद्युम्न को उन्हें मार गिराने से नहीं रोका. और फिर तुमने मानवों में श्रेष्ठ कर्ण जैसे योद्धा को उस समय मरवाया जब वह कठिनाई में था व कीचड़ में धँसे अपने रथ के पहिए को निकाल रहा था.यदि तुम कर्ण, भीष्म, द्रोण व मेरे साथ नीतिपूर्वक लड़े होते तो निश्चय ही विजय तुम्हारी कभी न होती.
                
आइए देखते हैं कि महाभारतकालीन युद्ध-संहिता क्या कहती है. इन नियमों का विस्तृत विवरण महाभारत के भीष्म पर्व में मिलता है. इसके अनुसार----युद्ध में वाणी के सहारे लड़ रहे योद्धा का प्रत्युत्तर वाणीसे ही दिया जाना चाहिए. रणक्षेत्र छोड़ चुके व्यक्ति को नहीं मारा जाता. रथी, रथी से ही लड़ेगा. हाथीसवार, हाथीसवार से, घुड़सवार, घुड़सवार से और पैदल सैनिक, पैदल सैनिक से लड़ेगा. उपयोग, वीरता, शक्ति व आयु के अनुसार किसी को किसी पर भी वार करने की अनुमति है, पर पहले उसे चेताया जाना चाहिए. जो असतर्क है, कठिनाई में है या अन्य से युद्धरत है, या किसी और दिशा में देख रहा है, या निःशस्त्र है, या जिसके अस्त्र-शस्त्र खत्म हो गए हैं, उन पर वार नहीं किया जाता. सारथियों, अस्त्र-शस्त्र सहायकों, शंख और नगाड़े बजाने वालों पर वार नहीं किया जाता. सूर्यास्त के बाद युद्ध रोक देना चाहिए.
                 
महाभारत की यह युद्ध-संहिता बहुत कुछ मध्यकालीन कैथोलिक चर्च की रण-संहिता के नियमों से मिलती-जुलती है. कैथोलिक चर्च का धर्मयुद्ध मुख्यतः दो नियमों पर आधारित हैविभेद का नियम, और आनुपातिकता का नियम. विभेद का नियम यह बताता है कि युद्ध के दोरान वैध लक्ष्य कौन-कौन से हैं. यानी एक सैनिक युद्ध में जिन्हें निशाना बन सकता है. आनुपातिकता का नियम यह बताता है कि किसी समय में कितना बल-प्रयोग नैतिकता के तकाज़े से सही होगा. इन नियमों के बावजूद हमेंशा युद्ध में नियमों का उल्लंघन होत रहा. हर युद्ध इस बात के लिए अभिशप्त है कि उसमें कुछ निर्दोष लोगों को भी हानि होती है. अमेरिकी सैन्य शब्दावली में इसे कोलैटरल डैमेजयानी समानांतर क्षति कहा जाता है.
        
किसी महानायक द्वारा येन-केन-प्रकारेण, छल-कपट से विजय प्राप्त करना कोई असामान्य बात नहीं है. महाभारत युद्ध के दौरान, पूरे समय कृष्ण पाण्वों को यही समझाते रहे कि आपने अनीति के विरुद्ध धर्मयुद्ध शुरू किया है, तो अब इसे किसी भी हाल में जीतना होगा. युद्ध शुरू होने के बाद केवल एक ही बात महत्वपूर्ण रह जाती है, वह है विजयश्री. दुनिया भर के युद्धवादीभी समय-समय पर यही तर्क देते रहे हैं. युद्ध,जायज़ है या नाजायज, इसका विचार युद्ध शुरू होने के पहले किया जाता है.
         
यद्यपि महाभारतकार की स्पष्ट सहानुभीति पाणडवों के पक्ष में रहती है क्योकि कौरवों ने उनके साथ अन्याय किया राज-पाट तो हड़प ही लिया था, लाक्षाग्रह में उन्हें जलाकर मारने की भी कोशिश की. लेकिन कृष्ण की अवसरवदिता की वह निन्दा भी करता है. एक तरफ महाभारत, कृष्ण के दैवीय स्वरूप की भी स्थापना करता है, तो दूसरी ओर उनके सांसारिक व्यवहार को भी परिभाषित करता है. दरअसल महाभारत में कृष्ण के दैवीय और सांसारिक पक्षों का अद्भुत संतुलन है. पूरे महाकाव्य में लगातार एक नैतिक दुविधा बनी रहती है. यह दुविधा है—ईश्वर और मनुष्य की, साध्य और साधन की. कृष्ण यदि देवाधिदेव हैं तो फिर मनुष्यों की तरह उनका कपटपूर्ण व्यवहार क्या उचित है ? किसी धर्मानुकूल साध्य को पाने के लिए क्या धर्मविरुद्ध साधन अपनाए जा सकते हैं ?? स्पष्ट रूप से महाभारत में साधन, साध्य पर भारी पड़ते दिखते हैं.
         
अंत में यह देखना अनिवार्य हो गया है कि महाभारत में कृष्ण की तरफ से होने वाली अनीति के पक्ष में कौन से तर्क हैं. खुद कृष्ण, महाकाव्य के कुछ पात्र, और परिस्थितियां इन दुविधाओं का जवाब देने की कोशिश करती हैं. हिन्दू-मान्यताओं के अनुसार भारत में काल के शास्त्रीय बोध के परिप्रेक्ष्य में लगातार धर्म की अवनति हो रही है. धर्म के चार स्तम्भ थे प्रारंभिक काल-सतयुग में. उसके बाद आने वाले हर युग में धर्म का एक-एक स्तम्भ ढहता गया और अधर्म बढ़ता गया. कुछ देवताओं को धरती से अधर्म खत्म करके फिर से सतयुग लाने का दायित्व सौंपा गया. उन्हीं में से एक विष्णु भी थे, जिन्होने कृष्ण के रूप में मनुष्य जन्म लिया. यानी महाभारत, पृथ्वी को अधर्म से मुक्ति दिलाने की एक वृहद् योजना का हिस्सा भर था.
         
उत्तंक ने जब कृष्ण को याद दिलाया कि आप तो ईश्वर हैं, आप इस नरसंहार को रोक सकते थे. तब कृष्ण ने सफाई दी थी कि मैने मनुष्य के रूप में जन्म लिया है, इसलिए मेरा आचरण मनुष्य के बुद्धि और आचरण की सीमाओं के भीतर ही हो सकता है. चौपड़ के खेल में जब द्रौपदी को अपमानित किया गया तो द्रौपदी ने कहा था----मुझे लगता है कि कालचक्र अपनी धुरी से उखड़ गया है.....इस प्राचीन सनातन धर्म का पालन कौरव नहीं कर पाए.चौपड़ के खेल का यह आयोजन और द्रौपदी का कथन इशारा कर रहे हैं कि दरअसल कलियुग समय-पूर्व आ गया है. और अनीति-अधर्म का बोलबाला है. कृष्ण भी दुर्योधन के आरोपों के जवाब में यही कहते हैं. ऐसे युग में जहाँ धर्म का पतन हो चुका हो, युद्ध में न्याय-संगत होने के लिए उन्हें छल-कपट का सहारा लेना पड़ा. कलियुग के इस दूषित समय में धर्म की रक्षा हेतु उन्हें एक बड़े न्याय की खातिर छोटे-छोटे छलकरने पड़े.
          
और भारतीयों ने कृष्ण के इस युग-शोधन के तर्क को स्वीकार भी कर लिया. वो स्पष्ट रूप से यह मानते हैं कि कृष्ण हैं जहाँ, धर्म है वहाँ; धर्म है जहाँ, विजयश्री है वहाँ.साफ है कि हमारे लिए कृष्ण का आचरण ही धर्म है. अर्जुन को गीता का उपदेश देते हुए यही घोषणा कृष्ण भी करते हैं. भारत का श्रद्धालु कहता है कि यह संसार तो एक मंच है, जहाँ प्रभु अपनी लीला रचते हैं. मनुष्य तो ईश्वर के खिलौने हैं. इसीलिए भारतीय जनमानस में हमेशा का वह रूप ही ताकतवर रहा, जिसमें उनकी बाल-लीलाएँ और रासलीला है.
              
बहुत आश्चर्य होता है कि जो कृष्ण माखन चुराता है, गोपियों के वस्त्र लेकर छुप जाता है, वह गीता का गंभीर योगी कैसे हो जाता है ! यही कृष्ण के व्यक्तित्व की निजता है. यही वह विशेषता है जिससे कृष्ण हमारे इतने नज़दीक लगते हैं. विरोधों का समागम हैं कृष्ण. हमारा सारा जीवन ही विरोधों पर खड़ा है. लेकिन इन विरोधों में एक लय है. एक प्रवाह है. सुख-दुख, बचपन-बुढ़ापा, रोशनी-अँधेरा, जन्म-मृत्यु----ये सब विरोधी प्रत्यय हैं, लेकिन एक लय में बंधे होते हैं. इसी लय में जीवन संभव होता है.


Friday 23 August 2013

मैं उससे कह रहा था

मैं उससे कह रहा था
कि तुम्हें नींद न आती हो
तो मेंरी नींद में सो जाओ
और मैं
तुम्हारे सपने में जागता रहूँगा ।

असल में
यह एक ऐसा वक्त था
जब बहुत भावुक हुआ जा सकता था
उसके प्रेम में ।

और यही वक्त होता है
जब खो देना पड़ता है
किसी स्त्री को ।

यह बात तब समझ में आयी
जब मुझ तक
तुम्हारी गंध भी नहीं पहुँचती है
और भावुक होने का
समय भी बीत चुका है ।

एक दिन देखता हूँ
कि सपने
व्यतीत हो गये हैं
मेरी नींद से ।

सपने न देखना
जीवन के प्रति अपराध होता है
कि हर सच
पहले एक सपना होता है ।

यह सृष्टि
ब्रह्मा का सपना रही होगी
पहले पहल,
और उसी दिन
लिखा गया होगा
पहला शब्द- प्रेम !    

Sunday 18 August 2013

पुनरवलोकन : गुलज़ार की फिल्म 'माचिस'




18 अगस्त को भारतीय सिनेमा के अनमोल रतन गुलज़ार का जन्मदिन है. मानवीय संवेदनाओं के इस विशिष्ट फिल्मकार नें फिल्म-कला के ऐसे मानक बना दिए हैं, जहाँ से या तो आगे जाया जा सकता है या फिर चुपचाप पीछे पीछे चला जा सकता है. गुलज़ार का दोहराव संभव नहीं है. खासतौर पर उनकी काव्य-संवेदनाओं का.......वर्षों पहले गुलज़ार ने अपनी ही लीक तोड़ी—माचिसबनाकर. भारतीय सिनेमा में आतंकवाद पर यह पहली मुकम्मल फिल्म थी. पुनरवलोकनमें आज इसी फिल्म पर कुछ बात करते हैं.
        
पंजाब के तत्कालीन आतंकवाद को गुलज़ार पश-ए-आइना जाकर देख रहे थे. वे आतंकवाद को उस तरह नहीं देखते जिस तरह मीडिया देखता है...वे आतंकवाद को उस तरह नहीं देखते जिस तरह के.पी.एस.गिल देख रहे थे....वे आतंकवाद को उस तरह भी नहीं देखते जिस तरह प्रधानमंत्री देखते हैं ! गुलज़ार आतंकवाद को उस तरह देखते हैं जिस तरह पंजाब की हवा देखती है.....जिस तरह मक्के की रोटी और सरसों की साग देखती है...जिस तरह पंजाबन का चूल्हा देखता है....जिस तरह बूढ़े दारजी अपनी आँखों पर मोटे नम्बर का चश्मा चढ़ाते हुए देखते हैं. गुलज़ार पंजाब के आतंकवाद को उस तरह से देखते हैं जैसे वीराँ और उसकी बी जी रात-रात भर जाग कर देखते हैं. जो कहानी गुलज़ार कहते हैं, वो कोई प्रधानमंत्री, कोई गिल, कोई मीडिया क्या कहेगा !
              
माचिसपंजाब के एक घर से शुरू होती है. यह घर पंजाब के अन्दर  उसी तरह है जैसे भारत के अन्दर पंजाब. एक घर है जिसमें जसवंत सिंह रन्धावा रहता है—ज़िन्दादिल. एक घर है जिसमें जसवंत अपनी बहन वीराँ के साथ रहता है—सुन्दर वीराँ—ज़िम्मेदार वीराँ—शर्मीली वीराँ—एकदम अच्छी वीराँ—भोली वीराँ—प्यारी वीराँ—प्यार करने लायक वीराँ. एक घर, जिसमें वीराँ रहती है, वहाँ कृपाल सिंह आता-जाता है. एक घर जहाँ पाली यानी कृपाल सिंह का प्यार गूँजता है. कृपाल और जसवंत जिगरी दोस्त हैं—ऐसे कि जसवंत को  धूप लगे तो पसीना कृपाल को निकले. एक घर है जहाँ बूढ़ी बीजी रहती हैं, जिनकी छाँव में जसवंत-वीराँ और कृपाल पलते हैं.
       
जिमी नाम के किसी आतंकवादी ने एक एम.पी. पर कातिलाना हमला किया है. पुलिस जिमी की तलाश करती हुई पंजाब के एक घर में आती है---पुलिस जसवंत के घर में आती है. पूछतांछ के लिए जसवंत को पुलिसवाले अपने साथ ले जाते हैं यह कहकर कि आधे घंटे में छोड़ देंगे. एक दिन-दो दिन-तीन दिन.....जस्सी नहीं लौटा...बीजी अचेत...वीराँ चौखट पर रोती हुई....कृपाल जस्सी को खोजता बदहवास---जस्सी लौटा पंद्रह दिन बाद—घायल, जख्मों से भरा, मरणासन्न, बमुश्किल पानी-पानी बोल पा रहा जस्सी !
              
जसवंत की हालत से आहत कृपाल पुलिसवालों को मारने की ठानता है. वीराँ रोकती है पर वह नहीं रुकता. उसे एक आतंकवादी सनातन का साथ मिलता है. सनातन के परिवार के आधे लोग सन् सैंतालीस के दंगों में मारे गये और आधे लोग सन् चौरासी के दंगों में. सनातन की मदद से कृपाल आतंकवादी संगठन का सदस्य बन जाता है. कुछ ही दिनों में जस्सी को प्रताड़ित करने वाले एक पुलिस अफसर को मारने में सफल हो जाता है. उधर पुलिस वाले जस्सी को फिर प्रताड़ित करते हैं. तंग होकर जसवंत ने कुएँ में कूदकर जान दे दी. सदमें से बीजी भी चल बसीं और वीराँ भी उसी आतंकवादी संगठन में शामिल हो गई जिसमें कृपाल था.कहानी बढ़ती है. एक खास मिशन के दौरान कृपाल पकड़ा जाता है. संगठन के सरदार को संदेह होता है कि कृपाल और वीराँ पुलिस से मिल गए हैं. अतः दोनों को खत्म करने की हिदायत देता है. इधर पुलिस भी कृपाल को प्रताड़ित करती है. वीराँ को सरदार की योजना पता चल जाती है. वह जेल में कृपाल से मिलने जाती है तो उसे चुपके से सायनाइड देती है. कृपाल सायनाइड खा लेता है. बाहर आकर वीराँ भी सायनाइड खा लेती है. फिल्म खतम ।
       
पंजाब के आतंकवाद की यह वो सच्चाई थी जिसे पंजाब वाला ही जानता है. फिल्म सीधे सादे तरीके से आगे बढ़ती है और कहीं भी कोई मनोवैज्ञानिक उलझन नहीं पैदा करती. गुलज़ार की फिल्में, प्रचलित अर्थबोध में कला फिल्म नहीं होतीं, लेकिन जीवन को एक घरेलूपन के साथ दिखा देने की अद्भुत कला है गुलज़ार के पास.
       
जो लोग गुलज़ार की फिल्में देखते रहे हैं अथवा उनकी कहानियाँ और कविताएँ पढ़ते रहे हैं, वो जानते होंगे कि सन् सैंतालिस के भारत विभजन का गुलज़ार पर बहुत गहरा और दीर्घकालिक प्रभाव है. विभाजन उनकी संवेदना में इस तरह अंकित हो गया है कि अब किसी भी तरह के विभाजन की कल्पना से वो काँप जाते हैं. माचिसमें भी आतंकी सनातन के संवादों के ज़रिए वे अपने इस दर्द को ज़ाहिर करते हैं. हिन्दू-मुसलमान के बाद अब हिन्दू-सिख के विभाजन का प्रतिरोध बार-बार फिल्म में आता है. लोकतंत्र में जनता की भूमिका और अहमियत के खत्म होते जाने को भी फिल्म में उभारा गया है. पंजाब के नवयुवकों के आतंकवादी बनने के कारण इतने स्पष्ट हैं, कि कहानी में कहीं भी तथाकथित कला फिल्मों वाले टूल्स इस्तेमाल करने की जरूरत नहीं पड़ती.
       
फिल्म में वीराँ और कृपाल की प्रेम कहानी भी चलती है. प्रेम को फिल्माने का गुलज़ार का अपना एक बिल्कुल निज़ी और प्रभावशाली तरीका है. उनका ऑब्ज़रवेशन बहुत सूक्ष्म होता है. वे प्रेम को बहुत ही घरेलू और छोटी-छोटी हरकतों में व्यक्त करते हैं. जैसे, जब नायिका नायक को बताती है कि उसे जुक़ाम हो गया है, और मुस्कुराकर नाक पोंछती है, तो उस छोटे से निज़ी दृश्य में भी प्रेम की ध्वनि होती है और दर्शक की साँसें थोड़ी अस्त-व्यस्त सी चलने लगती हैं. प्रेम के फिल्मांकन में कोई लाउड सीन नहीं है. एकदम बच्चों जैसा खेल है. लेकिन इसी खेल को जब बड़े खेलते हैं तो एक नया अर्थ पैदा होता है. एक नई दुनिया बनती है. कुछ नयी नयी सी हवा वहाँ की लगती है. कृपाल जब वीराँ से कहता है—जब तू नहीं थी तो मरने से डर नहीं लगता था. अब तू आ गई है तो मौत डराने लगी है—तो वह उसी प्रेम को कह रहा होता है, जो इस दुनिया में ज़िन्दा रहने की दिलचस्पी और हिम्मत पैदा करता है.
        
आमतौर पर यह जानकर कि कोई फिल्म कला फिल्म है अथवा फिल्म का निर्देशक कला फिल्में बनाता है, एक बहुत बड़ा दर्शक वर्ग पहले ही किनारा कर लेता है. इस तरह की फिल्मं बहुत कम जगहों पर प्रदर्शित हो पाती हैं. माचिस ने अगर आम दर्शकों को भी अपनी ओर खींचा, तो इसकी वज़ह इसके खूबसूरत गीत और संगीत हैं. गीत गुलज़ार ने अपने परिचित अंदाज़ में लिखे हैं. छोटे छोटे ऑब्ज़रवेशन के गीत—जिसमें हँसते वक्त गालों में पड़ने वाले भँवर को भी चुपके से देख लिया गया है. इसी में तुम गए सब गया, कोई अपनी ही मिट्टी तले दब गया.....जैसा गम्भीर गीत भी है.
      
संगीत तैयार किया था विशाल भारद्वाज ने. उन्होने कम से कम वाद्ययंत्रों का उपयोग करके मीठी धुनें बनायी हैं. लता की आवाज़ की रेंज का अच्छा इस्तेमाल किया है लेकिन उतना बढ़िया नहीं जितना हृदयनाथ मंगेशकर उन्हीं दिनों कर रहे थे. कुछ गाने बहुत लोकप्रिय हुए थे. खासतौर से---चप्पा चप्पा चरखा चले....और छोड़ आए हम वो गलियाँ..... वैसे तो सभी गीत अच्छे हैं लेकिन एक गीत अटपटा लगा....भेजो कहांर पिया जी बुला लो...”…..इस गाने की धुन राजस्थानी लोकधुन है. जबकि पंजाब में गाई जाने वाली हीर प्रेम में विरह को व्यक्त करने के लिए ज्यादा स्वाभाविक लगती.
      
य़ूँ तो फिल्म में सबने बेहतरीन अभिनय किया है, लेकिन चौंकाया था तब्बू नें. तब्बू को देखकर लगता ही नहीं कि ये वही लड़की है जो रुक रुक......पर मटक रही थी. बाद के वर्षों में तब्बू की क्षमताओं का पूरा उपयोग नहीं हो सका और वो गुम होती गयीं. यही हश्र नये अभिनेता चन्द्रचूड सिंह का भी हुआ.

      
माचिससे पहले गुलज़ार ने जितनी फिल्में बनायीं, वो सब एक सरल जीवन, एक घर और प्रेम के आस-पास बुनी गयीं. किसी ऐसे विषय को, जो अब तक डाक्यूमेंट्रीज का विषय रहा हो, कहानी में तब्दील कर माचिसबनायी गई. गुलज़ार द्वारा बनायी गयी शायद यह पहली समस्या-प्रधान फिल्म थी. अन्ततः गुलज़ार को भी इस ओर आना ही पड़ा. देश की तत्कालीन हालत सारे कला-माध्यमों को अपनी ओर खींच रही थी. यह जरूरी भी था और मजबूरी भी थी. माचिसका ही एक संवाद है, जब सनातन आतंकवादी गिरोह में वीराँ के शामिल होने पर कहता है----ये जगह वैसे तो तुम्हारे लिए नहीं थी, पर अब है तो क्या करे !”
सच गुलज़ार साहब ! यह जगह वैसे तो आपके लिए नहीं थी, पर......!!

Monday 12 August 2013

न होने की भाषा

इन दिनों
मैं किस भाषा में बात करूँ
कि ज़ाहिर न हो मेरा पराजित होना
और उदासी रौशन न हो उठे
शब्दों के अँधेरे में भक्क् से ।

सपनों के स्थापत्य को
छुपा लेने के लिए
किन शब्द शक्तियों का उपयोग
सबसे कारगर होगा इन दिनों !

माथे पर उभरती
बेचैन लकीरों की लिपि को
अपाठ्य बना देने की कला
मुझे किस काल के उत्खनन में मिलेगी ।

मुझमें राजमार्गों पर
चलने का शऊर नहीं था
मैं दिन रात
अपनी पगडंडियाँ बनाता रहा ।
अपनी प्यास के लिए
नदियाँ बनायीं
धरती के एक बंजर टुकड़े पर
मैं रोपता रहा अपनी ज़िद ।

इसी रास्ते पर चलते हुए
मैं अपने होने की
सरहद तक पहुँच गया ।

अपने होने के
आखिरी जिस छोर पर हूँ मैं
वहाँ तक नहीं चलीं पगडंडियाँ
नदी नहीं आयी साथ
पेड़ भी ओझल हैं नजरों से ।

यहाँ से आगे
एक ऐसी अभिव्यक्त दुनिया है
जिसमें मुझे सीखनी है
अव्यक्त रह जाने की भाषा ।

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Saturday 3 August 2013

रफी की याद में

कौन भूल सकता है मो. रफी को ! भले ही उनको हमसे जुदा हुए तैंतीस साल हो गए हों, पर एक लम्हे को भी कभी महसूस हुआ क्या कि वो अब हमारे बीच नहीं हैं !! ताज़ा और महकते फूलों की तरह रफी की आवाज़ आज भी वैसी ही है, जैसे कभी रफी के होने पर थी.

24 सितंबर 1924 को कोटला सुल्तानपुर में जन्मा था संगीत का यह कोहिनूर. पंजाब की माटी का कुछ असर रहा होगा कि बचपन से ही गाने की लत लग गई. ये लत लगाई थी एक भिखारी ने. भिखारी जब भी रफी के घर के पास से गाते हुए गुजरता, वे उसका गाना सुनते हुए उसके पीछे पीछे दूर तक निकल जाते. और खुद भी उसके गानों को गाते. पिता हाज़ी अली मोहम्मद को गाना-बजाना पसन्द नहीं था इसलिए वो रफी को इस दिशा में नहीं जाने देना चाहते थे. ऐसे में बड़े भाई मोहम्मद शफी फरिश्ता बनकर आए. रफी की काबिलियत को उन्होने समझा. पिता जी को मनाया और रफी को बड़े गुलाम अली खां के भाई बरकत अली खां साहब के पास ले गए. यहीं उनकी संगीत की तालीम शुरू हुई. बाद में वाहिद खां साहब की शागिर्दी में रफी ने अपने हुनर को और धार दी. इस बीच 13 साल की उमर में ही रफी ने लाहौर रेडियो पर गाना शुरू कर दिया था.

रफी की गायकी को उफान मिला एक खूबसूरत संयोग से. ये 1938 की बात है. प्यारेलाल सूद की देखरेख में एक गायन समारोह हुआ. इस समारोह में उस ज़माने के स्वर-सम्राट माने जाने वाले कुंदनलाल सहगल गाने वाले थे. उन्हें आने में देर हो गई तो श्रोता बेसब्र होने लगे. भगदड़ मचने लगी. आयोजक परेशान हो गये. तब रफी के चाचा ने रफी को स्टेज पर खड़ा कर दिया कि कुछ मन बहलाने के लिए गा दो. बिना माइक के ही रफी ने गाना शुरू किया. पंजाबी गीत था. गाना खतम होते-होते सहगल साहब भी आ गए. उन्होने देखा कि हाल में रफी के लिए तालियां गूँज रही है. सहगल ने रफी को आशीर्वाद दिया कि एक दिन तुम बहुत बड़े गायक बनोगे, खूब नाम कमाओगे. सहगल का आशीष फलित हुआ और भारतीय संगीत को मो. रफी मिले.

तो, 1944 में रफी का हिन्दी फिल्मी गीतों का सफर शुरू ही हो गया. इसी साल गाँव की गोरी”  के लिए उन्होंने पहला हिन्दी गीत गाया. बाद में उन्होने पहले आप फिल्म में भी गाया. लेकिन यह फिल्म ठीक ठंग से न चल सकी और न संगीत चला. एक वजह यह भी थी कि इसी फिल्म के साथ रतनभी प्रदर्शित हुई, जिसमें नौशाद ने उ.प्र. की लोक-धुनों के सहारे धूम मचा दी थी. इस दरम्यान रफी कव्वालियों और कोरस में गुम रहे. तब रफी को सहारा मिला 1946 में बनी फिल्मिस्तान की सफर से. संगीतकार सी.रामचन्द्र ने रफी की आवाज़ नायक कानू राय के लिए इस्तेमाल की. कह के भी न आए तुम, अब छुपने लगे तारे”….बेहद सीधे लहजे में गाये गए इस गीत ने रफी को पहली कामयाबी दिलाई. इसी फिल्म का एक दोगाना भी खूब मशहूर हुआ.

साजन में सी.रामचन्द्र ने फिर रफी को याद किया. हालांकि तब नायक अशोक कुमार अपने गाने खुद गाते थे लेकिन एक गाना था....तुम हमारे हो न हो, हमको तुम्हारा ही आसरा”……इसमें ललिता देउलकर की आवाज़ के सामने अशोक कुमार की आवाज़ ठहर नहीं पा रही थी. तब ललिता के साथ रफी ने यह गाना गाया. यह गीत इतना लोकप्रिय हुआ कि लोग रफी के बारे में जानने को उत्सुक हो उठे.

लगभग चालीस  साल के सफर में एक सदाबहार नाम है जुगनू’. यह फिल्म 1947 की शुरुआत में आई थी. इस फिल्म से इतिहास की कई बातें जुड़ी हैं. इसी फिल्म से दिलीप कुमार की पहचान बनी, और इसी फिल्म से गायक मो.रफी भी पहचाने गये. रफी ने अपने लिए भी गाया और दिलीप कुमार के लिए भी. वे गाने के साथ-साथ परदे पर भी थे. यहाँ बदला वफा का बेवफाई के सिवा क्या है........इस गीत में रफी, नूरजहाँ से बीस साबित हुए और उनका सिक्का जम गया.
नौशाद के साथ रफी की जोड़ी खूब जमी. नौशाद शास्त्रीय और लोकधुनों को मिलाकर फिल्म संगीत में मधुर प्रयोग कर रहे थे. लोक धुनों के अनुकूल उन्होने रफी की रेन्ज का बहुत खूबसूरत इस्तेमाल किया. मेला’, ‘दिल्लगी’, ‘दुलारीआदि फिल्मों से रफी बुलंदी पर पहुँच गये. नौशाद के संगीत में आई फिल्म दीदार’(1951), रफी के लिए एक नया युग लेकर आई. हुए हम जिनके लिए बर्बाद...”, “मेरी कहानी भूलने वाले...”, “देख लिया मैने, किस्मत का तमाशा देख लिया...”…….इन गानों से रफी के सुरों का जादू सर चढ़ के बोलने लगा. इसके बाद अगले कई दशकों तक नौशाद की धुनें, शकील बदायूँनी के बोल और रफी के सुर, फिल्म संगीत के खजाने को अनमोल नगमों से भरते रहे. अमर’, ‘आनऔर बैजू बावराअमर कृतियां मानी जाती हैं. राग मालकौंस में निबद्ध मन तरसत हरि दर्शन को आज...”,  “तू गंगा की मौज मैं जमुना का धारा....”  जैसे गीतों नें रफी को सबकी जुबान पर पहुँचा दिया. हर संगीतकार उनकी तरफ भाग रहा था. और पूरे आठ साल बाद रफी एक पूर्ण सितारे के रूप में उदित हो चुके थे.

वो क्या बात थी जो रफी को कमाल का गायक बनाती थी सबसे पहले तो उनकी सौम्यता...जो अहंकार-शून्यता से निकल कर आती थी. फिर संघर्ष करने का हौसला...और उसके बाद वो कंठ जो सिर्फ उन्हीं के पास था.....यह गला कुछ रियाज़ से मिला था, और कुछ प्रकृति से. उस ज़माने में एक भी ऐसा गायक नहीं था जो इतने ऊपर के स्वरों में जाने का हौसला करता. इसीलिए लोक की धुनें उपेक्षित थीं. रफी जब आये तो पंजाब का श्रम और दर्द लेकर आये. पंच-नदियों की रवानी लेकर आये. हीर की पीर लेकर आये. उनके आने से कुछ हथौड़ेबाज़ जौहरी बन गये...कुछ पत्थर हीरे जैसे चमकने लगे...रफी के होने के बाद ही मिठास को उसका शिखर मिला....रफी के होने से ही दर्द भी पिघलने वाली चीज़ हुआ.....और रफी के जाने के बाद से ही दर्द हमारा साथी हुआ.