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Monday 21 November 2016

पैसा ख़ुदा नहीं, पर ख़ुदा से कम भी नहीं !

                  
न जाने क्यों पिछले दस-ग्यारह दिनों से, सरकार की नोटबंदी की प्रक्रिया पर लिखने से मैं खुद को बचा रहा था. आप समझ सकते हैं कि साप्ताहिक स्तंभ लिखने के लिए अपने वर्तमान से एक सजग संबन्ध बनाए रखना कितना ज़रूरी होता है. पिछले हफ्ते तो बाल-दिवस ने बचा लिया. नौनिहालों की चिन्ता हमेशा मेरे चिन्तन के केन्द्र में रही है. इसलिए बाल-दिवस पर उसे व्यक्त कर  देना अप्रासंगिक नहीं रहा. लेकिन मैं यह भी देख रहा था कि नोटबंदी के बाद मचे हाहाकार के बीच बाल-दिवस का उल्लास कहीं गुम होकर रह गया. 9 नवंबर से नोटबंदी हुई. तब से लेकर आज तक लोगों की चर्चा में सिर्फ एक ही बात है-पैसा. पैसे को लेकर जितने भी संभव कोण हो सकते हैं, उन सभी कोणों पर बातें जारी हैं. ऐसा मंज़र है कि हर नागरिक अर्थशास्त्री है. वित्त-मंत्रालय और रिजर्व बैंक से रोज जारी होने वाले आदेश विद्युत गति से एक ज़ुबान से दूसरी ज़ुबान तक पहुँच रहे हैं. मोबाइल फोन पर सूचनाएँ आ-जा रही हैं कि फलाँ बैंक पैसा दे रहा है, फलाँ बैंक में पैसा खत्म हो गया. अमुक चौराहे के ए.टी.एम. से पैसा निकल रहा है.

सच पूछिए तो पहले दो दिन तो मुझे समझ ही नहीं आया कि नोटबंदी पर हसूँ या रोऊँ. जो छुट्टे पैसे जेब में थे उनसे दो दिन का काम चल गया. बंधे पैसे भी ज्यादा नहीं थे. तीसरे दिन 500 के तीन नोट लेकर बैंक की ओर चला कि इस काले धन को बैंक में जमा कर के अपने खाते से दस हजार निकाल लूँगा तो गृहस्ती का कारोबार चलता रहेगा. ठेल-ठाल के जब बैंक के काउन्टर पर पहुँचा तो बताया गया कि अभी सिर्फ पैसे जमा हो रहे हैं, दिए नहीं जा रहे. हमने अपना कालाधन जमा किया और लौट आए. जो था वो भी चला गया. जेब में पचास-साठ रुपए बचे थे. अगले दिन फिर बैंक गया. मैनेजर साहब ने कहा कि पैसा चेक से मिलेगा, वो भी सिर्फ दो हज़ार. मैं चेकबुक लेकर गया नहीं था लिहाज़ा घर भागना पड़ा. खैर चेक से एक चमचमाता हुआ दो हज़ार का नोट मिला. मैने सोचा पहले स्कूटर में पेट्रोल भराया जाए ताकि नौकरी और घूमने फिरने में कोई बाधा न आए. पेट्रोल पंप पर पहुँचे तो कहा गया कि कम से कम सत्रह-अठारह सौ का पेट्रोल डलवाइए तभी दो हज़ार का नोट लिया जाएगा. अब बताइए चार लीटर की टंकी में अठारह सौ का पेट्रोल कैसे डलवाते ! सो मायूस होकर लौटना पड़ा. वो तो भला हो उस किराना दुकान वाले का जिसके भीतर अचानक संवेदना का स्रोत कहीं से फूट पड़ा और उसने दो हज़ार का छुट्टा बिना कोई सामान खरीदे दे दिया. मेरी आत्मा अदृश्य तरीके से उसकी ऋणी हो गई, और मेरी गाड़ी चल निकली.

देश के करोड़ों लोगों की तरह मुझे भी अर्थशास्त्र की ज्यादा समझ नहीं है. मैं भी रुपए के मूल्य को अपने सुख-दुख के समानुपाती समझता हूँ. मुझे यह कभी नहीं समझ आता कि कौन सी मर्दाना कमजोरी की वजह से शेयर बाजार का शीघ्रपतन हो जाता है, और कौन सी वियाग्रा खाने से सेंसेक्स की उत्तेजना बढ़ जाती है. शेयर मार्केट के ‘साँड़’ और ‘भालू’ कौन सी अफीम खाकर अँगड़ाई लेते हैं, इसका मुझे सचमुच कोई इल्म नहीं. मुझे तो इन दिनों छत्तीसगढ़ के उस भाजपा नेता का डायलॉग याद आ रहा है, जब उसने घूस लेते हुए कहा था-“ख़ुदा कसम ! पैसा ख़ुदा नहीं, पर ख़ुदा से कम भी नहीं !” ये नेता जी एक स्टिंग ऑपरेशन में यह बात कह रहे थे. इस घटना से उनका राजनीतिक कैरियर बर्बाद भी हो गया. उनका यह डायलॉग उस दिन से मुझे याद आ रहा है जब मैं चौथी बार बैंक गया. दिन का दूसरा पहर था. बैंक में दो ऐसे व्यक्ति बैठे थे जिनके घर में किसी की मृत्यु हो गई थी. अगले दिन उनके यहाँ तेरहवीं थी और उन्हें पैसों की ज़रूरत थी. बैंक वालों ने कह दिया कि पैसे खत्म हो गए हैं. आप जानते ही हैं कि हिन्दू समुदाय में मृतक की तेरहवीं के आयोजन में कितना खर्चा होता है. उसी समय दो सुदर्शन महिलाएँ भी पैसे लेने पहुँचीं. मैनेजर साहब ने उन्हें इशारे से समझाया कि वे दोनों व्यक्ति यहाँ से हट जाएँ तो पैसे निकाल देंगे. मेरे लिए यह दृश्य संवेदना का एक नया रूप था.

अर्थशास्त्र की मेरी समझ भले ही कमज़ोर है पर पिछले कुछ समय से मन कहता है कि कहीं कुछ छल किया जा रहा है हमारे साथ. काफी समय से यह बताया जा रहा है कि मुद्रास्फीति घट रही है, लेकिन मंहगाई कम होने की बजाय बढ़ती ही गई. आर्थिक विकास दर के सरकारी आँकड़ों में अचानक उछाल आ गया लेकिन उसका कोई फायदा जनता को मिलता नहीं दिख रहा. उल्टा, सातवें वेतनमान का निर्धारण करते हुए सरकार ने पिछले वेतनमानों की परंपरा को भी तोड़ दिया और अपने कर्मचारियों को बहुत मामूली लाभ दिया. सरकार का यह भी दावा है कि पिछले दो सालों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश बढ़ गया है, लेकिन हम देख रहे हैं कि इसी अवधि में नौकरियों का अकाल हो गया है. सरकारी दावों और परिणाम के ये विरोधाभास क्या किसी छल की ओर इशारा नहीं करते ? छोटी सफलताओं के बड़े जश्न, क्या बड़ी असफलताओं को छुपाने के प्रयास नहीं हैं ? सर्जिकल स्ट्राइक का विश्वव्यापी प्रचार, क्या चीन और पाकिस्तान से मिली कूटनीतिक पराजय की प्रतिक्रिया नहीं थी ?

प्रधानमंत्री ने जब नोटबंदी की घोषणा की तो एकबारगी सबकी तरह मुझे भी यह एक बढ़िया कदम लगा. यह सोचकर खुशी हुई कि देश से कालाबाज़ारी खत्म हो जाएगी और लोगों के पास दबा गैरकानूनी धन सरकार के खजाने में पहुँच जाएगा. आतंकियों और नक्सलियों की कमर टूट जाएगी. लेकिन जैसे जैसे दिन बीत रहे हैं, मुंगेरीलाल के हसीन सपनों की हकीकत सामने आती जा रही है. जनता को हो रही परेशानियाँ तो आप सब देख ही रहे हैं. उसकी बात करना अब उतना जरूरी नहीं है. मैं यह देखना चाह रहा हूँ कि क्या सरकार अपने मकसद में सफल होती दिख रही है ? ऐसा नहीं है कि दुनिया में पहली बार किसी देश ने अपनी मुद्रा के साथ छेड़छाड़ की है. इसके पहले भी कई देशों ने विमुद्रीकरण की प्रक्रिया अपनायी है. लेकिन अब तक असफलता का आँकड़ा, सफलता से अधिक ही रहा है.

अपने आखिरी दिनों में सोवियत संघ ने जनवरी 1991 में विमुद्रीकरण की प्रक्रिया शुरू की. तत्कालीन राष्ट्रपति गोर्वाचोव रूसी मुद्रा रूबल की कालाबाज़ारी से परेशान थे. वो रूबल को बाहर करना चाहते थे. उन्होने 50 और 100 रूबल को प्रतिबन्धित कर दिया. यह करेंसी सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था का एक तिहाई हिस्सा थी. उन्होने उदारीकरण और राजनीतिक आर्थिक सुधार के इन कार्यक्रमों को ‘पेरेस्त्रोइका’ और ‘ग्लासनोस्त’ नाम दिया. लेकिन सोवियत संघ को इसका कोई फायदा नहीं हुआ, उल्टे अगस्त का महीना आते आते सोवियत संघ का विघटन हो गया.

ब्लैकमनी और कालाबाज़ारी पर रोक लगाने के लिए उत्तर कोरिया के तानाशाह किम जोन्ग ने 2010 में विमुद्रीकरण किया.  उन्होने सभी करेंसी वैल्यू से दो शून्य हटा दिए. यानि 1000 का नोट 10 का रह गया और 5000 का नोट 50 की कीमत का हो गया. उत्तर कोरिया में इस फैसले का बहुत बुरा असर हुआ. महगाई आसमान छूने लगी. खाद्यान्न की कीमतें इतनी अधिक हो गईं कि लोग भूखों मरने लगे. अंतत: तानाशाह को माफी मागनी पड़ी और उसने अपने वित्तमंत्री को फांसी पर लटका दिया. इसी तरह म्यामार में 1987 में मिलिट्रीशासन नें लगभग 80 प्रतिशत करेंसी को अवैध घोषित कर दिया. म्यामार के इतिहास में पहली बार छात्रों ने विमुद्रीकरण के विरोध में आन्दोलन शुरू किया. यह आन्दोलन साल भर चला. सरकार ने भरपूर दमन किया. नतीजा यही रहा कि हज़ारों नागरिक मारे गए.

मुद्रा के साथ छेड़खानी यानि विमुद्रीकरण की प्रक्रिया हर बार असफल रही हो, ऐसा भी नहीं है. लेकिन यह सफलता विकसित देशों को ही मिली. 1971 में इंग्लैण्ड ने रोमन काल से चले आ रहे सिक्कों को हटाने के लिए अपनी मुद्रा पाउण्ड में दशमलव पद्धति लागू की. अर्थशास्त्र में इसे ‘डेसिमलाइजेशन’ कहा जाता है. पूरे देश में चार दिन बैंक बन्द कर दिए गए. और पर्याप्त मात्रा में नई करेंसी पहुँचा दी गई. इतने कम समय और जनता को परेशान किए बगैर इंग्लैण्ड ने सफलता के साथ पुराने सिक्कों को बाहर कर दिया. इसी तरह जनवरी 2002 में यूरोपीय संघ के 11 देशों ने नयी करेंसी ‘यूरो’ अपनायी. यूरो का जन्म 1999 में ही हो गया था. तीन साल की तैयारी के बाद इसे सदस्य देशों ने अपनाया और इसका उनकी अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक असर हुआ.

इन असफलताओं और सफलताओं के बरक्स भारत के विमुद्रीकरण या नोटबंदी को देखिए. यह साफ है कि प्रक्रिया जल्दबाजी में शुरू की गई. अगर कोई कार्ययोजना बनी भी है तो हद से हद उसे एक महीने का ही समय मिला. रिजर्व बैंक पूर्व गवर्नर रघुराम राजन को पद छोड़े एक महीने से कुछ ही दिन अधिक हुए थे जब यह घोषणा हुई. रघुराम राजन ने अपने बयान में कहा भी है कि नोटबंदी से कालाधन वापस नहीं आएगा. साफ है कि उनके समय में ऐसी कोई योजना न बनी होगी. यह निर्णय नये गवर्नर उर्जित पटेल के आने पर ही लिया गया. यह इससे भी स्पष्ट है कि जो नई करेंसी आ रही है उस पर उर्जित पटेल के ही हस्ताक्षर हैं. रही बात कालेधन की तो जिनके पास करोड़ों में पैसा था उन्होंने उसे घर पर नहीं रखा है. उनका पैसा व्यापारियों, बिल्डरों, शेयर मार्केट में लगा हुआ है. जो धीमी गति से ही सही, अंतत: सफेद हो ही जाएगा. जिनके पास थोड़ी छोटी रकमें थीं वो इन दिनों सोना खरीद कर रख रहे हैं. अनधिकृत रूप से सोने की कीमत 55000 रुपये प्रति 10 ग्राम तक पहुँच गई है. सोने के व्यापारी बिना पैन कार्ड लिए सोना बेच रहे हैं. हवाला कारोबारी भी कमीशन लेकर कालेधन को सफेद कर रहे हैं. वैट से छूट प्राप्त कारोबारी 40 प्रतिशत पर बन्द हो चुके नोट ले रहे हैं. ये कारोबारी इन नोटों को 30 प्रतिशत टैक्स देकर जमा कर देते हैं तब भी इन्हें 30 प्रतिशत का मुनाफा हो रहा है. जिनके पास ज्यादा पैसे नहीं हैं वो और भी आसान तरीकों से कालेधन को सफेद कर ले रहे हैं. इसमें बैंक के कर्मचारियों की बड़ी भूमिका है. कुल मिलाकर नोटबंदी से एक नए तरह का कालाबाज़ार पैदा हो गया है.

मुझे प्रधानमंत्री की मंशा पर कोई संदेह नहीं है. लेकिन उनकी समझ और महत्वाकांक्षाओं को लेकर हमेशा सवाल रहे हैं मेरे मन में. प्रधानमंत्री का  स्वभाव बहुत उतावलेपन का है. वो भारत ही नहीं पूरी दुनिया को अकेले ही बदल डालने की महत्वाकांक्षा लेकर चल रहे हैं. कदाचित चुनाव में मिले प्रचण्ड बहुमत ने उनके भीतर ये महत्वाकांक्षाएँ जगायी हों. भारत का प्रधानमंत्री बनते ही नरेन्द्र मोदी की कोशिशों से यह साफ दिखता है दुनिया में उनकी धाक अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, जर्मनी, चीन के राष्ट्रप्रमुखों से कुछ अधिक नहीं तो कम से कम उनके बराबर तो मानी ही जाए. नोटबंदी का चौंकाने वाला फैसला उनकी इसी मनोवृत्ति का परिणाम है. इस कदम से देश को कितना फायदा होगा, यह तो वक्त ही बताएगा, फिलहाल आलम यह है कि अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में 50 से 70 प्रतिशत की गिरावट दर्ज़ की जा रही है.

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Tuesday 15 November 2016

आँख के तारों का आकाश

           मनुष्य का सबसे सुन्दर रूप तब तक होता है जब वह बच्चा होता है. बच्चों की उपमा जब फूलों से दी जाती है, तो यह प्रकृति की सबसे खूबसूरत कृतियों का तादात्म्य दिखाने भर की कोशिश नहीं होती, बल्कि इसका छुपा अभिप्रेत भी होता है कि फूल जैसे कोमल बच्चों को तेज़ हवा, धूप और बारिश से कैसे बचाना चाहिए. दुनिया की निष्ठुरताओं के बीच कैसे इन्हें सहेजना चाहिए. ये बच्चे, जिन्हें दुनिया का भविष्य होना है, इनका वर्तमान कैसा है और कैसा होना चाहिए ! भविष्य, वर्तमान की कोख से ही लिकलता है. भविष्य का एक अनिवार्य जैनेटिक संबन्ध अतीत और वर्तमान के साथ होता है.

आज बाल दिवस है. यह दिन प्रत्यक्षत: बच्चों के उल्लास का दिन होता है. यह दिन उनकी उमंग में विभोर हो जाने और उनकी उड़ान को निरखने का होता है. अप्रत्यक्षत: यह दिन बड़ी चिन्ता का का दिन होता है. यह दिन दुनिया के भविष्य-दृष्टाओं को थोड़ा असहज और परेशान कर देता है. बच्चों की किलकारी और उछाह से जैसे ही नज़र हटती है, कुछ स्याह मंज़र नज़र आने लगते हैं. और नज़र है कि बार-बार हटती है. बच्चों की यह बेलौस हँसी, हमें आशंका के भँवर में बार-बार क्यों फँसा देती है ?

हमारे देश में बाल दिवस, प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के जन्मदिन से जुड़ा हुआ है. 14 नवंबर को नेहरू जी का जन्मदिन है और 1956 से ही इस दिन को बाल दिवस के रूप में मनाया जा रहा है. बच्चों के प्रति नेहरू जी का प्यार और चिन्ता जगजाहिर है. किस्से भी बहुत हैं. उनकी शेरवानी में खुँसा हुआ गुलाब का फूल उनके इसी प्यार का प्रतीक माना जाता है. सिर्फ भारत ही नहीं, दुनिया के कई देशों में बाल दिवस मनाया जाता है. कहना न होगा कि अमेरिकी और यूरोपीय देशों में बचपन को सहेजने का काम अधिक सचेत होकर और ज़िम्मेदारी से किया जाता है. जबकि भारत में सारी संवैधानिक व्यवस्थाओं के बावजूद बच्चों की स्थिति चिन्ताजनक है.

बच्चे दुनिया के समाज की कितनी महत्वपूर्ण इकाई हैं, इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1925 में जिनेवा में हुई विश्व कांफ्रेन्स में बच्चों के समुचित विकास के लिए बाल दिवस मनाने की घोषणा की गई और बच्चों की समस्याओं को चिन्ता के केन्द्र में रखा गया. इस कांफ्रेन्स में 54 देशों ने भाग लिया था. तब संयुक्त राष्ट्र संघ ने 20 नवंबर की तारीख को बाल दिवस के रूप में मनाने के लिए तय किया था. 1950 से बाल संरक्षण दिवस(1 जून) को ही कई देशों में बाल दिवस के रूप में मनाया जाने लगा था. आपको जानकर सुखद आश्चर्य होगा कि कुछ देशों ने बच्चों के अधिकारों की निगरानी के लिए अलग से लोकपाल की नियुक्ति कर रखी है. सबसे पहले नार्वे ने 1981 में लोकपाल नियुक्त किया. बाद में आस्ट्रेलिया, कोस्टारिका, स्वीडन, स्पेन, फिनलैण्ड आदि देशों में भी बच्चों के लिए लोकपाल नियुक्त किए गए. अपने देश में बच्चों के सर्वांगीण और समुचित विकास के लिए सरकारी स्तर पर योजनाएँ और नीतियाँ कम नहीं हैं. सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अंतर्गत ‘राष्ट्रीय बाल भवन’ नाम की एक स्वायत्त संस्था कार्यरत है. देश भर में 68 बाल भवन और 10 बाल केन्द्र संचालित हैं. यह संस्था बच्चों की रचनात्मक क्षमता को प्रोत्साहित करने, निखारने और उन्हें शोषण से मुक्त रखने के लिए सरकारी किस्म के प्रयास करती है. इसीलिए इसके नतीज़े बहुत उत्साहवर्धक और आश्वस्तकारी नहीं दिखते.

बच्चों के विकास और उन्हें शोषण से मुक्त रखने की चिन्ता हमारे देश के संविधान निर्माताओं को भी थी. इसीलिए उन्होने एकाधिक अनुच्छेदों में बच्चों से संबन्धित प्रावधान रखे हैं. संविधान के अनुच्छेद 15(3) में बच्चों और महिलाओं के सशक्तिकरण से यह चिन्ता शुरू होती है. अनु. 21(A) में 6-14 वर्ष के बच्चों को अनिवार्य एवं मुफ्त शिक्षा का प्रावधान है. सरकार को यह सुनिश्चित करने को कहा गया है कि 6-14 वर्ष का कोई बच्चा शिक्षा से वंचित न रहने पाए. इसी तरह अनुच्छेद 24 साफ और कड़े तौर पर बालश्रम पर रोक लगाने की घोषणा करता है. बच्चों के स्वास्थ्य और रक्षा के लिए अनुच्छेद 39(E) में निर्देशित किया गया है. और आख़ीर में अनुच्छेद 39(F) में संविधान यह भी कह देता है कि राज्य बच्चों के सर्वांगीण और गरिमामय विकास के लिए सभी आवश्यक सुविधाएँ उपलब्ध कराए.

अब यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि संविधान के उपरोक्त प्रावधान बहुत सकारात्मक और पर्याप्त हैं. लेकिन हमारे देश में बच्चों की स्थिति देख कर साफ पता चलता है कि संविधान की मंशा इस पवित्र ग्रन्थ में ही कहीं घुट कर रह गई है. यह हम नहीं, केन्द्र सरकार के सर्वेक्षण कहते हैं कि देश के 53.22 प्रतिशत बच्चे यौन शोषण के शिकार हैं. आश्चर्यजनक रूप से इनमे 53 प्रतिशत लड़के हैं, और लड़कियाँ 47 प्रतिशत. यौन शोषण करने वाले लोग कोई गैर नहीं बल्कि 50 प्रतिशत लोग इन बच्चों के नजदीकी रिश्तेदार या मित्र ही होते हैं. इसीतरह देश में लगभग पाँच करोड़ बालश्रमिक हैं, जो होटलों, खदानों, ट्रांसपोर्ट या अन्य खतरनाक जगहों में काम पर लगे हुए हैं. ऐसा नहीं है कि ये बालश्रमिक दिखाई नहीं पड़ते. लेकिन व्यवस्था की कमजोरियों के चलते बालश्रम धड़ल्ले से जारी है. ‘पढ़ना बढ़ना’ और ‘स्कूल चलें हम’ जैसे सरकारी आन्दोलनों के बावजूद देश में लाखों बच्चे स्कूल तक नहीं पहुँच पा रहे हैं.

इसमें कोई दो राय नहीं कि शिक्षा ही जीवन की दिशा और दशा तय करती हैय दुनिया भर में इस बात पर विमर्श हुए हैं कि बच्चों की शिक्षा कैसी होनी चाहिए. अलग-अलग विधियाँ अपनाई गईं. हमारे देश में भी महात्मा गाँधी से लेकर गिज्जूभाई बधेका तक ने बच्चों की शिक्षा को लेकर कुछ मौलिक विचार दिए. अधिकतर विमर्शों का निष्कर्ष यही रहा कि बच्चों को क्रियात्मक ज्ञान दिया जाना चाहिए. शिक्षा ऐसी हो जो बच्चों का व्यक्तित्व बनाए. जो उनमें कुछ हुनर पैदा करे. साफ है कि हम उन बच्चों की बात कर हैं जो प्राथमिक और माध्यमिक स्तर के विद्यार्थी हैं. यही सबसे नाजुक अवस्था होती है. एक बच्चे का पूरा भविष्य इसी बात पर निर्भर करता है कि उसे प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर  कैसी शिक्षा मिली है. हम उस सुप्रसिद्ध रूपक का इसतेमाल करते हुए कहें तो प्राथमिक स्तर के बच्चे गीली मिट्टी की तरह होते हैं. उन्हें जैसा आकार दे दिया जाय उसी में ढल जाते हैं. आपने देखा होगा कि ग्यारहवीं और बारहवीं कक्षा तक पहुँचते पहुँचते बच्चों में एक व्यक्तित्व आकार लेने लगता है.

मैं जब अपने देश के आज के बच्चों को देखता हूँ तो मेरी चिन्ता इसी बिन्दु से शुरू होती है. मुझे सभी बच्चों के व्यक्तित्व एक जैसे नज़र आते हैं. उनमें कोई विलक्षणता नहीं दिखती. कोई निजता नहीं होती. इन बच्चों को देख कर मुझे अपने बचपन के वो दृश्य याद आते हैं, जब हमारे घरों में ईटें बनवाई जाती थीं. कुम्हार आते थे और घर के सामने के समतल दुआर में ईटें पारते थे. शाम होते होते पूरा दुआर एक जैसी ईटों से भर जाता था. मुझे आज के बच्चे इन्हीं ईटों की तरह दिखते हैं. जैसे सब के सब एक ही सांचे से निकल कर आए हों. मैं यह कतई नहीं कह रहा हूँ कि आज के बच्चे बुद्धिमान नहीं होते. बल्कि सच तो है कि ज्ञान के विविध क्षेत्रों के प्रकाशन से आज के बच्चों का बौद्धिक विकास, पहले के बच्चों से अधिक अधिक स्तर पर होता है. लेकिन व्यावहारिक समझ के मामले में ये बच्चे पीछे रह जाते हैं. इसकी सबसे बड़ी वजह है कि बच्चों में क्रियात्मकता घट रही है. हमारे मोहल्लों से खेल के मैदान गायब हो गए तो बच्चों के जीवन से खेल-कूद गायब होते गए. खेत और बगीचों में कॉलोनियाँ बन गईं तो बच्चों का प्रकृति से रिश्ता टूट गया. प्रकृति को देखने के लिए उन्हें अब शिमला, मसूरी और कश्मीर जाना पड़ता है. साल दो साल में एक दो दिन के लिए. यह भी सम्पन्न घरों में ही संभव है. बच्चे प्रकृति के प्रेमी नहीं बन पाते. वे सिर्फ प्रकृति के पर्यटक रह गए हैं. जो खेल मैदानों में खेले जाते थे, उनकी जगह वीडियोगेम और कम्प्यूटर ने ले ली है.

मेरे जब स्कूल के दिन थे उस समय प्राथमिक स्तर पर चार विषय और माध्यमिक स्तर पर छ: विषय पढ़ाए जाते थे. पहली से पांचवी तक चार किताबें, चार कापियाँ और एक स्लेट. कापियाँ भी रोज़ लेकर नहीं जानी होती थीं. बहुत हल्का सा स्कूल बैग होता था. खेलने-कूदने-लड़ने-झगड़ने-गिरने-पड़ने के लिए इतना समय होता था कि अक्सर खपाए नहीं खपता था. आज की हालत देखिए. तीन-चार साल के बच्चे पचीस किलो का स्कूल बैग पीठ पर लादे दोहरे हुए जाते हैं. हम गौर करें तो दिखेगा कि हमारे ज़माने और अब के समय में ज्ञान के विषयों में कोई खास फर्क नहीं आया है. माध्यमिक स्तर तक जो शिक्षा बच्चों को दी जानी चाहिए, उसके विषय अब भी वही हैं जो पहले थे. बस कम्प्यूटर की शिक्षा अतिरिक्त बढ़ गई है. इस बीच जो विज्ञान का विकास हुआ है वो उच्चशिक्षा का मसला है, स्कूल शिक्षा का नहीं. फिर मेरी समझ में यह नहीं आता कि मेरे बेटे के स्कूल बैग का वज़न, मेरे स्कूल बैग से पचीस गुना ज्यादा क्यों हो गया ? मुझे यह भी बड़ा विचित्र लगता है कि इन बच्चों की साल भर परीक्षाएं ही चलती रहती हैं. हमारे समय में सिर्फ दो बार ही परीक्षा होती थी, अर्धवार्षिक और वार्षिक. इन बच्चों के पास इतना होमवर्क होता है किसी और काम के लिए अवकाश ही नहीं. मुझे बहुत शिद्दत से यह लगता है की हमारी शिक्षा प्रणाली बच्चों का आदमी नहीं, रोबोट बना रही है. और मैं डर जाता हूँ यह सोचकर कि रोबोटों से भरी, आगे आने वाली दुनिया, कैसी दुनिया होगी !

Wednesday 9 November 2016

मीडिया और नंगा राजा


आपको वह कहानी याद होगी जिसमें एक सनकी राजा नंगा होकर नगर की गलियों से गुजरते हुए प्रजा से पूछता है कि उसके कपड़े कैसे है ! लोग जवाब देते हैं- अद्भुत ! तभी कोई बच्चा बोल देता है- राजा नंगा है !  राजा नंगा है !  राजा के सिपाही बच्चे को पकड़ कर कैदखाने में डाल देते हैं. यद्यपि एनडीटीवी कोई बच्चा चैनलनहीं है, लेकिन वो जब भी राजा को नंगा देखता है, बोल देता है. और राजा अतत: उसे कैदखाने पहुँचवा ही देता है. आखिर कब तक सहता रहता !

जिस मीडिया की बदौलत आजकल कोई भी खबर देश भर में आग की तरह फैल जाती है, उसी मीडिया पर हुए हमले की खबर भी आग से भी अधिक तेजी से फैली और देश भर के सोच-समझ वालों को झुलसा दिया. आप सब तक भी यह खबर पहुँच ही गई होगी कि देश के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने हिन्दी खबरिया चैनल एनडीटीवी इंडिया पर चौबीस घंटे का प्रतिबन्ध लगा दिया है. 9 नवंबर की आधी रात से 10 नवंबर की आधी रात तक, देश के किसी भी हिस्से में एनडीटीवी का प्रसारण नहीं होगा. सरकार ने सभी प्रसारणकर्ताओं को ताकीद कर दिया है कि इस आदेश का गंभीरता से पालन हो अन्यथा गंभीर सज़ा भुगतनी होगी. एनडीटीवी पर यह प्रतिबन्ध उसके एक कवरेज को बहाना बनाकर लगाया गया है. 4 जनवरी 2016 को पठानकोट एयरबेस पर पाकिस्तानी आतंकवादियों ने हमला किया था. यह सेना का अत्यधिक महत्वपूर्ण एयरबेस है. न जाने सुरक्षा व्यवस्था में कहाँ और कैसी चूक हुई कि आतंकवादी इस एयरबेस में घुस गए और काफी नुकसान पहुँचाया. दूसरे चैनलों की तरह एनडीटीवी ने भी इस बड़ी घटना को कवर किया. फर्क बस इतना था, कि दूसरे चैनल 56 इंची सीने की गीदड़ भपकियों, गृहमंत्री की गर्वोक्तियों और रक्षामंत्री की मूढ़ताओं को महिमामंडित कर रहे थे और एनडीटीवी इस बड़ी घटना में सुरक्षा-व्यवस्था में हुई चूकों और दोषियों को खोज रहा था. बस यही उसका अपराध बन गया. घटना के दस महीने बाद सरकार ने एनडीटीवी पर प्रतिबन्ध लगाने की सज़ा दी. सरकार की तरफ से कहा गया है कि चैनल की रिपोर्ट से सामरिक महत्व की अतिसंवेदनशील जानकारियाँ सार्वजनिक हो गई हैं.

अब कौन कहे कि राजा नंगा है. कौन पूछे कि जब आपने पाकिस्तानी जाँच दल को पठानकोट एयरबेस में जाने की इज़ाज़त दी थी, तब क्या उसकी सामरिक संवेदनशीलता खत्म हो गई थी ? उस जाँच दल में कथित तौर पर पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आई.एस.आई. का एक अधिकारी भी था. वह न भी होता तो पाकिस्तानी सेना के अधिकारी तो थे ही. पाकिस्तानी सेना और खुफिया एजेंसी का खतरनाक गठजोड़ जग जाहिर है. आखिर जिसका डर था बेदर्दी वही बात हो गई. पाकिस्तानी जाँच दल जब लौट कर गया तो उसने इस आतंकी हमले में पाकिस्तान का कोई हाथ होने से साफ इंकार कर दिया. इस प्रकरण में भारत सरकार की मज़बूरी भी दिखी और दिशाहीन विदेशनीति भी. वहीं पाकिस्तान ने ज़बरदस्त दाँव खेला. उसने पठानकोट में अपना जाँच दल भेज कर भारत सरकार को उभयतोपाश में डाल दिया. भारत सरकार अगर मना करती तो पूरी दुनिया को संदेश जाता कि भारत सरकार झूठ बोलकर नाहक पाकिस्तान को बदनाम कर रही है. जाँच दल को स्वीकृति देने पर यह तो तय था कि वो इस हमले का कोई पाकिस्तानी कनेक्शन स्वीकार नहीं करेंगे, लेकिन हमारे एक बेहद महत्वपूर्ण सामरिक ठिकाने की अन्दरूनी जानकारी उन्हें हो जाएगी. गनीमत यह है कि हमारी सेना इतनी अहमक नहीं है. जो चीजें छुपाने की हैं, उन्हें पाकिस्तानी जाँच दल से भी सेना ने छुपाया ही होगा. लेकिन यह पाकिस्तान की एक प्रतीकात्मक विजय थी कि वह हमारे सैन्य ठिकाने का मेहमान हुआ. हमारे जाँच दल तो उनके यहाँ कभी तन्दूरी मुर्गा खाने तक नहीं जा पाते. पाकिस्तान विश्व बिरादरी को भी भारत से बेहतर संदेश दे गया. भारत सरकार की विवशता साफ समझ आ रही थी.

पठानकोट कोई पेटीकोट नहीं है. अब अगर पठानकोट एयरबेस में कुछ संवेदनशील है, तो उसे मीडिया से भी छुपाया ही जाता रहा होगा. कम से कम देशद्रोही चैनल एनडीटीवी को तो कतई अनुमति न दी गई होगी कि वह सेना की गुप्त-गोदावरी तक पहुँचे. अगर बात ज़ीटीवी की होती तो एक बार सोचा भी जा सकता था. ज़ीटीवी पर सेना से जुड़ी विशेष रिपोर्ट्स आती रहती हैं, जिनमें संवेदनशीलता और गोपनीयता के मानकों में थोड़ी ढील दे दी जाती है. आप सबकी तरह मैं भी यही मानता हूँ कि देश की सुरक्षा से जुड़ी कोई भी जानकारी सार्वजनिक नहीं होनी चाहिए. मीडिया का तो सारा कारोबार ही सनसनी फैलाने से चलता है. अपनी टी.आर.पी के चक्कर में यह असंभव नहीं है कि मीडिया नाजुक मसलों में भी फिसल जाए. यहाँ सोचने वाली बात यह है कि अगर एनडीटीवी ने ऐसी कोई जानकारी सार्वजनिक की थी, जो नहीं की जानी चाहिए, तो ऐसी जानकारी उसे दी ही क्यों गई ? जिन जगहों को रिपोर्ट में दिखाने के लिए उसे प्रतिबन्ध की सज़ा दी गई है, उन जगहों तक मीडिया को पहुँचने ही क्यों दिया गया ? अगर मीडिया अपने लाव-लश्कर के साथ ऐसी संवेदनशील जगहों तक पहुँच सकता है, तो फिर दुश्मन के गुप्तचर तो और भी आसानी से खुफिया जानकारी जुटा सकते हैं.

लेकिन, जितना हम अपनी सेना को जानते हैं, उससे यह उम्मीद कतई नहीं की जा सकती कि वह अपने सुरक्षा इन्तज़ामों को लेकर इतनी लापरवाह होगी. उसने अगर मीडिया को कवरेज करने की अनुमति दी थी, तो निश्चित ही लक्ष्मण-रेखा के बाहर ही दी होगी. फिर एनडीटीवी पर प्रतिबन्ध लगाने का क्या औचित्य है ! दूसरी बात यह कि प्रतिबन्ध सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने लगाया है. कायदे से होना यह चाहिए कि अगर एनडीटीवी ने सेना के बैरिकेट्स का अतिक्रमण किया था तो सैन्य मुख्यालय से सरकार के पास चैनल पर दण्डात्मक कार्यवाही का निवेदन भेजा जाना चाहिए था. सरकार को किसी सक्षम समिति से जाँच करवानी चाहिए थी और उसके बाद ही दण्ड निर्धारित किया जाना चाहिए था. लोकतांत्रिक शासन का यही तकाज़ा है.

लेकिन भारत में लोकतंत्र पर गंभीर संकट दिख रहा है इन दिनों. लोकतांत्रिक प्रविधियों के भीतर, घोर अलोकतांत्रिक शक्तियाँ अप्रकट हैं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचला जा रहा है. इमरजेन्सी के बाद पहली बार मीडिया पर ऐसी कार्यवाही की गई है. राष्ट्रवाद की भावना को आतंकवाद की हद तक बढ़ाने के प्रयास किए जा रहे हैं. असहमति को राष्ट्रद्रोह सिद्ध किया जा रहा है. अभी कुछ ही दिनों पहले अरुण जेटली ने फरमान जारी किया है कि सरकारी कर्मचारियों को सरकार की आलोचना करने का अधिकार नहीं है. ऐसा करने पर उनके खिलाफ कार्यवाही की जाएगी. म.प्र. के एक आई.ए.एस. अफसर ने जवाहरलाल नेहरू की तारीफ कर दी तो भाजपा सरकार ने सज़ा दे दी. जे.एन.यू. के प्रकरण से तो आप सब वाकिफ़ ही हैँ. एनडीटीवी का प्रकरण सरकार की इसी प्रवृत्ति का अगला कदम है.

असल में आधुनिक समय में अभिव्यक्ति की आज़ादी का सबसे बड़ा संवाहक मीडिया  ही है. मीडिया को अगर लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा गया है, तो यह सिर्फ एक अलंकारिक उक्ति भर नहीं थी. इसमें एक गहरा दायित्वबोध भी है. मीडिया के व्यापक प्रसार ने हर देश में सरकारों को चुनौती दी है. जो सरकारें तानाशाही प्रवृत्ति की होती हैं वो मीडिया की आवाज़ को दबाने की कोशिश करती हैं. जिन सरकारों को जनता से सरोकार होता है, वो मीडिया को सचेतक के रूप में अपना प्रतिद्वन्द्वी मानती हैं. तानाशाही शासन के प्राथमिक लक्षणों में ही यह है कि जनता की अभिव्यक्ति पर नियंत्रण किया जाय. उसके बाद दूसरी तरह की स्वतंत्रताओं को खत्म करना अपेक्षाकृत सरल हो जाता है. तानाशाह शासक परंपराओं को नकारता है. सामूहिकता का विरोध करता है. पूर्ववर्तियों को अक्षम बताता है. सुनहरे भविष्य के सपने दिखाता है. और यह भी कहता है कि इन सपनों को साकार करने की जादुई छड़ी सिर्फ उसी के पास है. इस उपक्रम में वह जनता को उनके मानवाधिकारों से वंचित करने का त्याग करने का आह्वान करता है.


उपरोक्त लक्षणों से अगर आप सहमत हों तो आप साफ देख सकेंगे कि हमारे देश में प्रछन्न तानाशाही की शुरुआत हो चुकी है. विपक्ष के खिलाफ भ्रामक प्रचार करना, विपक्षी शासन वाली राज्य सरकारों को षणयंत्रपूर्वक बर्खास्त करना, कांग्रेसमुक्त भारत की कल्पना करना, जन आन्दोलनों का बर्वरतापूर्वक दमन करना, मीडिया को अपना चारण बना लेना, यह सब तानाशाही शासन के  स्पष्ट लक्षण हैं. तानाशाह आवाज़ों से डरता है. इसीलिए वह सबसे पहले आवाज़ों को ही कुचलता है. एनडीटीवी देश के उन लोगों की आवाज़ है जिन्हें लोकतांत्रिक मूल्यों में आस्था है. जो इस देश में समरसता और सह-अस्तित्व के हिमायती हैं. जो यह कहने का दम रखते हैं कि राजा नंगा है !